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नंदी
श्रीवत्स आदि शुभ संस्थान वाले चैतन्य केन्द्र मनुष्य और पशु के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं। वीरसेन आचार्य का मत है कि शुभ संस्थान वाले चैतन्य केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते।' नाभि से नीचे होने वाले चैतन्य केन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकार वाले होते हैं। आचार्य वीरसेन के अनुसार इस विषय का षट्खण्डागम में सूत्र नहीं है, किंतु यह विषय उन्हें गुरु परम्परा से उपलब्ध है।'
चैतन्य के द्रों के संस्थानों में परिवर्तन भी हो सकता है। सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान मिट जाते हैं, नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं। इसी प्रकार सम्यक्ष्टि के मिथ्यात्व अवस्था में चले जाने पर नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान मिट जाते हैं और नाभि के नीचे के अशुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं।
प्रस्तुत आगम में अज्ञान के तीन प्रकारों का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है। प्रकरणवश सम्यक्ष्टि के बोध को ज्ञान, मिथ्यादृष्टि के बोध को अज्ञान कहा गया है। मिथ्याश्रुत के प्रकार अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट है। प्रस्तुत आगम में उससे उद्धृत किए गए हैं । इस मिथ्याश्रुत की सूची में कुछ शब्द अपरिचित से हैं, जैसे-हंभीमासुरुतं ।
गोम्मटसार में इस शब्द के स्थानापन्न दो शब्द हैं-आभीय और आसुरक्ख । जिनका क्रमश: अर्थ दिया गया हैचौरशास्त्र और हिंसाशास्त्र ।
व्यवहार भाष्य में भंभीय और मासुरुक्ख ये दो शब्द आए हैं । मूलाचार में एक मासुरुक्ख शब्द का प्रयोग हुआ है।
इस प्रकार के प्रयोगों को देखने से लगता है कि इस नाम में बहुत विसंवाद है। अनुयोगद्वार की प्रतियों में भीमासुरुक्क, हंभीमासुरुक्क, भीमासुरुक्ष और भीमासुरुत्त ये चार पाठ आए हैं।"प्रकरण को देखने से लगता है कि 'भीमासुरोक्त' नामक कोई ग्रंथ होना चाहिए जो महाभारत और रामायण से अर्वाचीन तथा कौटिल्य से प्राचीन है।
पष्टितंत्र के कर्ता आसुरि के शिष्य पंचशिख थे। षष्टितंत्र सांख्यदर्शन का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इस ग्रंथ के आधार पर ईश्वरकृष्ण ने साख्यकारिका नामक ग्रंथ लिखा जिसका दूसरा नाम कनकसत्तरी [कनकसप्तति] है ।
माठर भाष्य षष्टितंत्र के उद्धाररूप में लिखा गया है। इसका समय विक्रम की तीसरी व चौथी शताब्दी माना गया है।
'वंशिक' ग्रन्थ कामशास्त्र का वाचक है । सूत्रकृताङ्ग सूत्र की चूणि में 'वैशिक' का अर्थ स्त्रीवेद किया गया है।" वहां लिखा है-दुविज्ञेयो हि भाव: प्रमदानाम् ।
जिस शास्त्र से स्त्रियों के चरित्र जाने जाते हैं, वह स्त्रीवेद है। इस संदर्भ में एक वैशिक पाठक का उदाहरण दिया गया है-एक युवा 'वैशिक' (कामशास्त्र) पढ़ने के लिए घर से निकला। मार्ग में उसे एक स्त्री मिली, वैशिक शास्त्र से अनजान होने के कारण वह उस स्त्री से छला गया। स्त्रियों के छलनामय व्यवहारों से बच निकलने के लिए 'वैशिक शास्त्र' का अध्ययन किया जाता था।
मूत्रकृताङ्ग की वृत्ति में भी 'वैशिक' शब्द के इसी अर्थ की ओर संकेत किया गया है।" दत्तावैशिक का उदाहरण देते हुए
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९७ : एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख-मणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होंति णो हेट्ठा, सुह संठाणाणमधोभागेण सह विरोहादो।। २. वही, पृ. २९८ : तिरिक्ख-मणुस्सविहंगणाणीणं णाहीए हेट्ठा सरडादि असुहसंठाणाणि होंदि त्ति गुरुवदेसो, ण
सुत्तमथि। ३. वही, पृ. २९८ : विहंगणाणीणमोहिणाणे सम्मत्तादिफलेण
समुप्पण्णे सरडादिअसुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहीए उवरि सखादिसुहसंठाणाणि होति त्ति घेतव्वं । एवमोहिणाणपच्छायद विहंगणाणीणं वि सुहसंठाणाणि फिट्टिदूण असुह
संठाणाणि होति त्ति घेतव्वं । ४. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. ३७ ५. अणुओगदाराई, सू. ४९ ६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, पृ. ३०३ :
आभीयमासुरक्खं भारहरामायणादि उवएसा । तुच्छा असाहणोया सुय अण्णगाणं ति बेंति ॥ ७. वही, पृ. ३५८ : आसमन्तात् भीताः आभीयाः चौराः तच्छास्त्रमप्याभीतं, असवः प्राणाः तेषां रक्षा येभ्यः ते असुरक्षाः तलवराः तेषां शास्त्रं आसुरक्षम् । ८. व्यवहार भाप्य, भाग ३, पत्र १३३ : भंभीयमासुरुक्खे माठर कोडिण्णदंडनीतिसु ।
आलं च पक्खगाही एरिसया रुव जक्खातो॥ ९. मूलाचार, पृ. २१७:
कोडिल्लमासुरुक्खा भारहा रामायणादि जे धम्मा।
होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो हवदि एसो॥ १०. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. ६७ का पादटिप्पण। ११. सूयगडसुत्तं, णिज्जुत्ति चुण्णि समलंकियं, पृ. १११ १२. वही, पृ. ११० १३. श्रीमत्सूत्रकृताङ्गम् नियुक्तिवृत्तियुतं, प. ११२
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