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भूमिका
या चैतन्य केन्द्र हैं | नंदी सूत्र में अवधिज्ञान के छः प्रकार बतलाए गए हैं१. आनुगामिक
२. अनानुगामिक ३. वर्धमानक
षट्खंडागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाए गए हैं
१. देशावधि
२. परमावधि
३. सर्वावधि
४. हायमान
५. वर्धमान
१. नवखाणि नंदी, पू. ९
२. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ. २९२
३. वही, पृ. २९५ : जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगवखेत्तं णाम ।
४. वही, जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसव्वावयवेसु
वट्टदि तमणेयवखेत्तं णाम ।
५. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. २२ गा. २ :
नेरइयदेवतित्थंकराय, ओहिस्सऽबाहिरा हुंति ।
पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति ॥ ६. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ. २९७ : ण च एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि चेव पदेसे ओहिणाणकरणं होदि त्ति नियमो अत्थि, एग-दो-तिष्णि चत्तारि-पंच-छ आदि खेत्ताणमेगजीवहि संखादिसुहठाणाणं कम्हि वि संभवादो ।
७.
. वही, पृ. २९६ : खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५७॥
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४. हीयमानक
५. प्रतिपाति
६. अप्रतिपाति'
६. अवस्थित
७. अनवस्थित
प्रस्तुत प्रसंग में एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र से दो मेद बहुत महत्वपूर्ण है। जिसमें जीव के शरीर का एक देश चैतन्य केन्द्र) करण बनता है, वह एक क्षेत्र अवधिज्ञान है । जो प्रतिनियत क्षेत्र के माध्यम से नहीं होता, किंतु शरीर के सभी अवयवों के माध्यम से होता है शरीर के सभी अवयव करण बन जाते हैं, वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान है ।"
यद्यपि अवधिज्ञान की क्षमता सभी आत्म प्रदेशों में प्रकट होती है, फिर भी शरीर का जो देश करण बनता है उसी के माध्यम से अवधिज्ञान प्रकट होता है। शरीर का जो भाग करण रूप में परिणत हो जाता है वही अवधिज्ञान के प्रगट होने का माध्यम बन सकता है। नंदी सूत्र में भी सब अवयवों से जानने और किसी एक अवयव से जानने की चर्चा मिलती है।" एक क्षेत्र अवधिज्ञान में शरीर का एक चैतन्य केन्द्र भी जागृत हो सकता है तथा दो, तीन, चार, पांच आदि चैतन्य केन्द्र भी एक साथ जागृत हो सकते हैं।
चैतन्य केन्द्र अनेक संस्थान वाले होते हैं, जैसे इन्द्रियों का संस्थान प्रतिनियत होता है वैसे चैतन्य केन्द्रों का संस्थान प्रतिनियत नहीं होता किंतु करण रूप में परिणत शरीर प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं। कुछ संस्थानों के नाम निर्देश मिलते हैं, जैसे- श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि ।' धवलाकार ने आदि शब्द के द्वारा अन्य अनेक शुभ संस्थानों का निर्देश किया है। तंत्र शास्त्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल शब्द की प्रकल्पना मिलती है। यहां कमल शब्द का उल्लेख नहीं है, किंतु आदि शब्द के द्वारा उसका निर्देश स्वतः प्राप्त हो जाता है उत्पन्न होने वाला बतलाया है।" टीकाकार ने आदि शब्द की दिया है ।" जैन साहित्य में अष्ट मंगल की मान्यता प्रचलित है । और अष्ट मंगलों में कोई सामञ्जस्य का सूत्र रहा हो।
।
आचार्य नेमिचंद्र ने गुण प्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिह्नों से व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश शब्दों का निर्देश " अनुमान किया जा सकता है कि अवधिज्ञान के शरीरगत चिह्नों
८. अनुगामी
९. अननुगामी
१०. सप्रतिपाती
११. अप्रतिपाती
१२. एक क्षेत्र
१३. अनेक क्षेत्र
१६
८. वही, पृ. २९७ : सिरिवच्छ कलस संख-सोत्थिय-णंदावतादीणि संठाणाणि णाणादव्वाणि भवंति ।
९. वही, एत्थ आदिसद्देण अण्णेस पि सुहसंठाणाणं गहणं
काव्वं ।
१०. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गा. ३७१ ।
भवपच्चइगो सुरणिरयाणं, तित्थेवि सव्व अंगुत्थो । गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिन्हभवो ॥ ११. गोम्मटसारीका नामेकपरिशङ्खस्वस्तिक
कलाविशुभचिन्हलवितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणीय योपशमोत्पन्नमित्यर्थः ।
रायकर्म
१२. उवंग सुत्ताणि १, ओवाइयं, सू. ६४ : इमे अट्ठट्ठ मंगलया पुत्र महापुण्वी संपद्विया, तं जहा सोबत्थिय-सिरिवच्छ दियावत्त-बद्ध माणग-भद्दासण कलस मच्छ-दप्पणया ।
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