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नंदी
२. यह स्पर्धक' अवधि होने के कारण आत्मप्रदेशों के अन्तभाग में रहता है, इसलिए अन्तगत है। ३. यह औदारिक शरीर के किसी देश से साक्षात् जानता है, इसलिए अन्तगत है।'
औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि , सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है।'
जब आगे के चक्र या चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं तब पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान होता है, उससे अग्रवर्ती ज्ञेय जाना जाता
जब पीछे के चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं तब पृष्ठतः अन्तगत अवधिज्ञान होता है, उससे पृष्ठवर्ती ज्ञेय जाना जाता है।
जब पार्श्व के चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं, तब पार्श्ववर्ती अन्तगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे पार्श्ववर्ती ज्ञेय जाना जाता है।
जब मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं तब मध्यगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे सर्वतः समन्तात् (चारों ओर से) ज्ञेय जाना जाता है।
इसका निष्कर्ष है कि हमारे समूचे शरीर में चैतन्य केन्द्र अवस्थित हैं। साधना के तारतम्य के अनुसार जो चैतन्य केन्द्र जागृत होता है उसी में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलने लग जाती हैं। पूरे शरीर को जागृत कर लिया जाता है तो पूरे शरीर में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां फट पड़ती हैं। किसी एक या अनेक चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता से होने वाले अवधिज्ञान का नाम देशावधि है। पूरे शरीर की सक्रियता से होने वाला अवधिज्ञान सर्वावधि है।
प्राणी के पास चार करण होते हैं-मन करण, वचन करण, काय करण और कर्म करण। अशुभ करण से असुख का और शुभ करण से सुख का सवेदन होता है।
प्रवेताम्बर साहित्य में करण के विषय में अर्थ की परम्परा विस्मृत हो गई। दिगम्बर साहित्य में उसकी अर्थ परम्परा आज भी उपलब्ध है। उससे चक्र या चैतन्य केन्द्र के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।
करण का एक अर्थ होता है निर्मल चित्त धारा । उसका दूसरा अर्थ है चित्त की निर्मलता से होने वाली शरीर, मन आदि की निर्मलता। शरीर के जिस देश में निर्मलता हो जाती है अर्थात् शरीर का जो भाग करण रूप में परिणत हो जाता है उस भाग से अतीन्द्रिय ज्ञान होने लग जाता है। इस दृष्टि से हमारे शरीर में अवधिज्ञान के अनेक क्षेत्र हैं, अनेक संस्थान हैं। ये संस्थान ही चक्र १. आत्मगुण का आच्छादन करने वाली कर्म की शक्ति का
असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ । नाम स्पर्धक है। वह दो प्रकार का होता है-देशघाति
मग्गओ अंतगएणं ओहिणाणेणं मग्गओ चेव संखेज्जाणि और सर्वधाति । आत्मा के किसी एक देश का आच्छादन
वा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ । करने वाली कर्म शक्ति को देशघाति स्पर्धक और सर्वदेश
पासओ अंतगएणं ओहिणाणणं पासओ चेव संखेज्जाणि का आच्छादन करने वाली कर्म शक्ति को सर्वघाति स्पर्धक
वा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ । कहा जाता है।
मज्झगएणं ओहिणाणेणं सव्वओ समंता संखेज्जाणि वा २. (क) नंदी चूणि, पृ. १६ : एवं ओरालियसरीरंते ठितं गतं
असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ । ति एगळं, तं च आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोव- ५. भगवई, ६५ लंभाओ य अंतगतमोधिण्णाणं भण्णति, अहवा ६. भगवई, ६।१४ सव्वातप्पदेसविसुद्धेसु वि ओरालियसरीरेगंतेण ७. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ. २९६ : ओहिणाणमणेयक्खेत्तं एगदिसिपासणगतं ति अतगतं भण्णति । अहवा
चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेफुडतरमत्थो भण्णति-एगदिसावधिउवलद्धखेत्तातो
सेणेव वज्झठावगमाणुववत्तीदो ? ण, अण्णत्थ करणाभावेणं सो अवधिपुरिसो अंतगतो त्ति जम्हा तम्हा अंतगतं
करणसरूवेण परिणदसरीसेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभण्णति। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २३
भावादो। ३. नंदी चूणि, पृ. १६ : मज्झगतं पुण ओरालियसरीरमझे
८. वही, पृ. २९६ : फडगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सव्वदिसोवलं
खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५७।। भत्तणतो मज्झगतो ति भण्णति ।
जहा कायामिबियाणं च पडिणियदं संठाणं तहा ४. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. १६ : अंतगयस्स मज्झगयस्स य को
ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमपइविसेसो?
गदजीवपदेसाणं करणी भूदसरीरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा पुरओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पुरओ चेव संखेज्जाणि वा
होति।
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