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________________ प्र० ५, सू० ८०-६१, टि० ४ १६६ आचारांग में धर्मास्तिकाय आदि का निरूपण नहीं है इसलिए हरिभद्र का अर्थ अधिक संगत है । कृत पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार, परिवर्तन ।' चूर्णिकार और हरिभद्र ने कृत का अर्थ कृत्रिम-प्रयोग और स्वभाव से होनेवाला परिवर्तन किया है।' निबद्ध जो आचाराङ्ग में सूत्र रूप में प्रतिपादित है।' निकाचित जो अर्थ रूप में व्यवस्थापित है।' आत्मा, ज्ञाता, विज्ञाता इन तीन पदों में आचाराङ्ग का फल बताया है। आत्मा आचाराङ्ग का अध्ययन करनेवाला आत्मा बन जाता है। आचाराङ्ग उसके लिए आत्मीय बन जाता है। इसलिए वह स्वयं आचाराङ्ग में निबद्ध बन जाता है। ज्ञाता आचाराङ्ग में निबद्ध भावों का ज्ञाता । विज्ञाता आचाराङ्ग में निबद्ध भावों को नियुक्ति, हेतु और उदाहरण आदि से जानने वाला ।' चरणकरणप्ररूपणा आचाराङ्ग आचारशास्त्र है। इसलिए इसमें आचार का निरूपण किया गया है। द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू० ८९ । २. सूत्रकृत सूचना का तात्पर्य है प्राथमिक जानकारी, जैसे विनष्ट सूई का धागे से पता चल जाता है वैसे ही सूत्रकृताङ्ग से जीव, अजीब आदि पदार्थों की प्राप्ति होती है इसलिए सूत्रकृताङ्ग की रचना शैली के लिए सूचनार्थक धातु का प्रयोग किया गया है। उसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, वैनयिकवाद और अज्ञानवाद इस प्रकार ३६३ दार्शनिकों की व्यूह रचना कर स्वसमय की स्थापना की गई है। सूत्रकृताङ्ग में लोक, अलोक, जीव, अजीव आदि के आगे सूचनार्थक धातु का प्रयोग है, स्थानाङ्ग में स्थापनार्थक धातु का समवायाङ्ग में समाश्रयणार्थक धातु का और व्याख्याप्रज्ञप्ति में व्याख्यानार्थक धातु का प्रयोग है। द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय सू. ९० ३. स्थान स्थानाङ्ग में एक से लेकर दस तक जीव आदि पदार्थों के स्थान बतलाए गए हैं। वर्तमान में उपलब्ध स्थानाङ्ग में यह १. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७७ : कृताः पर्यायार्थतया प्रतिसमयम- ४. (क) नन्दी चूणि, पृ. ६२ : निज्जुति-संगहणि-हेतूदान्यत्वावाप्तेः। ___ हरणादिएहि य णिकाइया। २. (क) नन्दी चूणि, पृ० ६२ : कड त्ति-कित्तिमा, पयोगतो ५. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७७ : तदुक्तक्रियापरिणामात्मा व्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः।। वीससापरिणामतो वा जहा अन्भा अन्भरुक्खादी। (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. २१२ : तदुक्तक्रियापरिणामा(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ.७७ ।। व्यतिरेकात् स एवाचारो भवतीत्यर्थः। . ३. (क) नन्दी चूणि, पृ० ६२ : एते सव्वे आचारे सुत्तेण ६. मलयगिरीया वृत्ति, प. २१२ : यथा नियुक्ति सङ्ग्रहणिहेतू. निबद्धा। दाहरणादिभिविविधं प्ररूपितास्तथा विविध ज्ञाता भवति । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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