________________
१७०
नंदी
शैली सर्वत्र उपलब्ध नहीं है। यत्र-तत्र इस शैली का स्वरूप मिलता है । जैसे
१. आत्मा एक है।' २. जीव के दो प्रकार हैं-संसारी और सिद्ध ।' ३. जीव के तीन प्रकार हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक ।' ४. जीव के चार प्रकार हैं-नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव ।' ५. (संसारी) जीव के पांच प्रकार हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ।'
६. (संसारी) जीव के छः प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तैजसकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और असकायिक ।
७. (संसारी) जीव के सात प्रकार हैं--नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, तिर्यञ्चयोनिकी, मनुष्य, मानुषी, देव और देवी।' ८. जीव के आठ प्रकार हैं- नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, तिर्यञ्चयोनिकी, मनुष्य, मानुषी, देव, देवी और सिद्ध । ९. (संसारी) जीव के नव प्रकार है-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तैजसकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। १०. (संसारी) जीव के दस प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तैजसकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अतीन्द्रिय ।"
जयधवला में स्थानाङ्ग की पूर्वोक्त शैली का स्पष्ट निर्देश है।" स्थानाङ्ग में जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों का एक से लेकर दस तक ऋमिक निरूपण है। इसको स्पष्ट करने के लिए आचार्य वीरसेन ने पञ्चास्तिकाय से दो गाथाएं उद्धृत की है।
द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय,सू० ९१ ४. समवाय
समवायाङ्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा समवाय का वर्णन है। यह जयधवला का निरूपण है।" षट्खण्डागम के जीवस्थान में भी ऐसा ही निरूपण उपलब्ध है।" नन्दी चूर्णिकार ने समवाय के चतुर्विध निक्षेप का उल्लेख किया है। 'समासिज्जन्ति' इस धातु पद की व्याख्या में उन्होंने यह संकेत दिया है कि समवायांग में समवस्तुओं का वर्णन है विषम का नहीं ।" द्रव्यों की समानता का निरूपण करने वाली शैली वर्तमान समवायाङ्ग में उपलब्ध नहीं है । पं० कैलाशचन्द्रजी ने समवायाङ्ग और नन्दी के तुलनात्मक अध्ययन में लिखा है"-"समवायाङ्ग में द्वादशाङ्ग का वर्णन नन्दी से प्रायः अक्षरशः मेल खाता है। अत: डॉ० बेबर का कहना था कि हमें यह विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि नन्दी और समवाय में पाये जाने वाले समान वर्णनों का मूल आधार नन्दी है। और यह कार्य समवाय के संग्राहक का या लेखक का होना चाहिए। आगे डॉ० बेबर ने लिखा है कि "किन्तु हमारे इस अनुमान में एक कठिनाई है और वह यह है कि नन्दी और समवाय के ढंग में अन्तर है। किन्तु समवाय से नन्दी की विषयसूची बहुत संक्षिप्त है। इससे यह प्रमाणित होता है कि नन्दी में दत्त विषयसूची प्राचीन है। इसके सिवाय नन्दी में उक्त द्वादशांग की विषयसूची को लेकर जो पाठभेद पाये जाते हैं, निश्चय ही समवाय के पाठों से उत्तम या प्राचीन है।"
द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू० ९२ ।
१. ठाणं, १२ २. वही, २०४०८ ३. वही, ३।३१७ ४. वही, ४१६०८ ५. ठाणं ५।२०४ ६. वही, ६८ ७. वही, ७७१ ८. वही, ८1१०६ ९. वही, ९७ १०. वही, १०।१५३ ११. कषायपाहुड़, पृ. १२३
१२. षटखण्डागम, पुस्तक ९, पृ. १९८ १३. कषायपाहक, पृ. १२४ : समवाओ णाम अंग दव-खेत्त
काल-भावाणं समवायं वणेदि । तत्थ दव्व समवाओ । तं जहा, धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-लोगागासएगजीवाणं पदेसा अण्णोणं सरिसा । कथं पदेसाणं दव्वत्तं ? ण, पज्जवट्टियणयावलंबणाए पदेसाणं पि दव्वत्तसिद्धीदो। सीमंत-माणुसखेत्तउडुविमाण-सिद्धिखेत्ताणि-चत्तारि वि सरिसण्णि, एसो
खेत्तसमवाओ।............... ....... १४. षखण्डागम, पुस्तक १, पृ, १०२ १५. नन्दी चूणि, पृ. ६४ १६. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ. ६५३,६५४
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org