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नंदी
२६-३० निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा
ये उपांग के पांच वर्ग हैं।' व्यवहार सूत्र में नन्दी में आए हुए आगमों के अतिरिक्त आगमों का उल्लेख है'- स्वप्नभावना, चारणभावना, तेजोनिसर्गभावना, आशीविषभावना, दृष्टिविषभावना ।
सूत्र ७९ ३. (सूत्र ७६)
प्रस्तुत सूत्र का प्रारम्भ 'एवमाइयाई चउरासीइं पइण्णगसहस्साई' इन वाक्यों से होता है । 'एवमादि' यह वाक्य पूर्वनिर्दिष्ट ग्रन्थों की ओर संकेत करता है । इसका तात्पर्य है-पूर्ववर्ती सूत्रों में जिन उत्कालिक और कालिक आगमों की तालिका दी गई है वे आगम प्रकीर्णक की कोटि के हैं । चर्णिकार ने बताया है-भगवान् ऋषभ के चौरासी हजार शिष्य और उनके द्वारा रचित कालिक और उत्कालिक प्रकीर्णक चौरासी हजार थे।
चूर्णिकार तथा वृत्तिकारों ने प्रकीर्णक के दो अर्थ परिभाषित किए हैं१. अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट श्रुत से निर्वृहण कर जो रचना की जाती है वह प्रकीर्णक है।
२. श्रुत का अनुसरण कर अपने वचन कौशल से जो प्रवचन किया जाता है वह प्रकीर्णक है। वह प्रवचन नियमतः किसी श्रुत ग्रन्थ का अनुपाती होता है।
प्रकीर्णक की रचना के विषय में सूत्रकार ने दो परम्पराओं का उल्लेख किया है१. जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य होते हैं उतने ही प्रकीर्णकों की रचना की जाती है ।
२. दूसरा विकल्प यह है कि जिस तीर्थङ्कर के बुद्धि चतुष्टय युक्त जितने शिष्य होते हैं, उतने ही प्रकीर्णकों की रचना की जाती है।
___ प्रकीर्णकों की संख्या और प्रत्येकबुद्धों की संख्या का परिमाण समान बतलाया गया है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक के रचनाकार प्रत्येकबुद्ध होते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकार के सामने प्रकीर्णक रचना की निश्चित परम्परा नहीं थी। अनेक आगमधरों की अनेक परम्पराओं का सूत्रकार ने संकलन कर दिया।
सूत्र ८०-९१ ४. (सूत्र ८०-६१) १. आचार
आचार द्वादशाङ्गी का पहला अङ्ग है। इसकी विषय वस्तु है-आचार । प्रस्तुत विवरण आचारचूला से संबद्ध अधिक है, आचार से कम है । आचार के प्रतिपाद्य विषय नौ बतलाए गए हैं --
१. आचार-ज्ञान आदि की आसेवन विधि । २ गोचर-भिक्षा ग्रहण की विधि । ३. विनय -ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रति विनम्रता । ४. वैनयिक-शिक्षा--विनय का फल । चणिकार तथा वृत्तिकारों ने विनय और शिक्षा दोनों पदों को संयुक्त माना है।
__ उसका अर्थ है शिष्य को दी जाने वाली आसेवन शिक्षा ।" १. उवंगसुत्ताणि, निरयावलियाओ, १४,५
तं च वयणं नियमा अण्णतरगमाणुपाती भवति तम्हा तं २. नवसुत्ताणि, ववहारो, १०१३३-३७
पइण्णगं । ३. (क) नन्दी चूणि, पृ. ६० : भगवओ उसभस्स चउरासी- (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६४ तिसमणसाहस्सीतो होत्था, पइण्णगज्झयणा वि सव्वे (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २०८ कालिय-उक्कालिया चतुरासीतिसहस्सा। कह ? जतो ते ४. (क) नन्दी चूणि, पृ. ६१ : वेणइया-सीसा, तेसि जहा चतुरासीति समणसहस्सा अरहंतमग्गउवदिठे जं सुतमणु
आसेवण सिक्खा। सरिता किंचि णिज्जू हंते ते सव्वे पइण्णगा, अहवा सुत
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७५ : विनेयशिक्षेत्यन्ये । मणुस्सरतो अप्पणो वयणकोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २१०: विनेयशिक्षेति भासते तं सव्वं पइण्णगं, जम्हा अणंतगमपज्जय सुत्तं दिळं ।
चूणिकृत् ।
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