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________________ प्र० ५, सू० ७६-७८, टि०२ चूर्णिकार ने अंगचूलिका के प्रसंग में आचार की पांच चूलिकाओं और दृष्टिवाद की चूला का उल्लेख किया है ।' मलयगिरि ने अङ्गचूलिका के सन्दर्भ में निरयावलिका का उल्लेख किया है। उसके पांच विभाग हैं—वे उपासकदशा आदि पांच अङ्गों की चूलिका हैं अंग उवासरासाओ अंतगडद साओ अगुतववादसा पण्हावागरणाई विवागसु उपांग निरयावलियाओ ( कप्पिया ) कप्पवडिसियाओ पुफियाओ पुष्फलवाओ वहिदसाओ १४. वर्गलिका वर्गचूलिका के विषय में भाष्य और चूर्णि का मत बहुत भिन्न है । भाष्यकार के अनुसार वर्गचूलिका महाकल्पश्रुत की चूलिका है। चूर्णिकार के अनुसार अंतकृतदशा और अनुत्तरोपपातिकदशा के वर्ग हैं, उनकी चूलिका वर्ग चूलिका है। १५. व्याख्यावलिका--- यह व्याख्याप्रज्ञप्ति की चूलिका है।" १६-२२.त बोलतोयपात धरणीषपात, बंधमणोपपात, वेधनपाल देवेोपपात ये अध्ययन देव गण के नाम से सम्बद्ध हैं । अरुण, वरुण, गरुड़, धरण, वैश्रमण, वेलंधर और देवेन्द्रदेवों के नाम के आधार पर उक्त अध्ययनों की रचना की गई है। अध्ययन से संबद्ध देवों को प्रणिधान कर उनका परावर्तन किया जाता है । उस समय वे देव उपस्थित हो जाते हैं। इनका परावर्तन निश्चित समय में किया जाता है और उस समय उन देवों के आसन चलित होते हैं और वे परावर्तन कर्त्ता के सामने अन्तर्हित अवस्था में ध्यानपूर्वक अध्ययनों को सुनते हैं । उसकी समाप्ति पर कहते हैं 'सुभाषितम् ' वर मांगो । परावर्तन करनेवाले श्रमण के मन में कोई चाह नहीं होती । वह कहता है-मुझे कोई वर नहीं मांगना है । तब वे उस श्रमण को वंदना कर लोट जाते हैं ।' व्यवहार भाष्य में धरणोपपात का उल्लेख नहीं है ।" , २३-२५. उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, नागपर्यापनिका उत्थानश्रुत का उपयोग दुष्ट श्रमण जिसको लक्ष्य कर श्रृंग बजाता है वह कुल, गांव और देश उजड़ जाता है। वह प्रसन्न होकर समुत्थानश्रुत का परावर्तन करता है तब उजड़े हुए कुल, गांव और देश पुनः बस जाते हैं । " नागपर्यापनिका नामक अध्ययन का परावर्तन करने पर नागकुमार अपने स्थान पर स्थित रहकर वंदना, नमस्कार करते हैं और श्रृंगज्ञात जैसे कार्यों में वर भी देते हैं।' मलधारी श्रीचंद्रसूरि ने 'सिनायक' का विस्तृत अर्थ किया है।" १. नन्दी चूर्ण, पृ. ५९ : अंगस्स चूलिता जहा आयारस्स पंचकूलातो, विट्ठवारसा ला Jain Education International २. व्यवहार सूत्र, १०।३० : वृत्ति प० १०९: अङ्गानामुपासक दशाप्रभृतीनां पञ्चानां भूलिका निरयाबलिका अतिका ३. द्रष्टव्य - अङ्गचूलिका का पादटिप्पण । ४. नन्दी चूर्ण, पृ. ५९: जहा अंतकडदसाणं अट्ठ बग्गा, अणुत्तरोववातियदसाणं तिष्णि वग्गा, तेसि चूला वग्गचूला । ५. वही, पृ. ५९ : वियाहो भगवती, तीए चूला वियाहचूला । ६. (क) नन्दी गि, पृ. ५९ " (ख) हारिभावृत्ति, पृ. ७३ (ग) मलयगिरीया वृत्ति प. २०६, २०७ १६३ ७. व्यवहार भाष्य, गा. ४६६० ८. नन्दी चूर्ण, पृ. ६० ९. वही पृ. ६० १०. हारिभद्रया वृत्ति, पृ. १६२, १६३ : सिंगनाइयकज्जेसु त्ति, शृङ्गज्ञातेन तुल्यानि शृङ्गज्ञातीयानि तानि च तानि कार्याणि चेति विग्रहः । यथा गवि स्थितं शृङ्ग सर्वजनप्रकटं भवति, एवं यत् सर्वजनविदितं महदद्भुत किञ्चिचैत्य गुरु सङ्घादिविषयमनर्थरूपं प्रत्यनीकेन क्रियमाणं भवति तत् शृङ्गज्ञातीयमुच्यत इत्येके । शृङ्गनादितकार्यमित्यपरे, तत्र तादृशे कार्य उत्पन्ने शृङ्गनादः - शृङ्गापूरणपूर्वक सङ्घ मिलन लक्षणः स सञ्जातो यत्र तच्च तत् कार्यं चेति व्याचक्षते । शृङ्गज्ञातीयं संघकार्यमुच्यते इति तात्पर्यम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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