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________________ प्र० ५, सू०७४-७८, टि० १,२ १५७ के अनेक विकल्प बतलाए हैं। उनके अनुसार स्वाध्याय काल में जिसका काल नियत है वह कालिक है, अनियत काल वाला उत्कालिक है।' अनुयोगद्वार में परिमाण संख्या के प्रकरण में कालिक मूत्र का परिमाण बताया गया है।" आवश्यकता होता है कि आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोग की व्यवस्था के समय कालिकत की व्यवस्था की थी । प्रथम अनुयोग चरणकरणानुयोग है। उसके लिए नियुक्तिकार ने कालिकश्रुत का प्रयोग किया है।" मलधारी हेमचन्द्र का अभिमत है - ग्यारह अङ्ग कालग्रहण आदि की दृष्टि से पढ़े जाते थे, इसलिए उनकी संज्ञा कालिक है। कालिकश्रुत में प्रायः चरणकरणानुयोग का प्रतिपादन है इसलिए भाव्यकार ने वरणकरणानुयोग के स्थान पर कालिकत का प्रयोग किया है।" कालिकत का प्रायः चरणकरणानुयोग में समावेश है। ऋषिभाषित - उत्तराध्ययन में नमि, कपिल आदि का कथानक है। इसलिए उनका समावेश धर्मकथानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि का समावेश गणितानुयोग में और दृष्टिवाद का समावेश इव्यानुयोग में किया गया है। कालिक और उत्कालिक - यह विभाग सर्वप्रथम प्रस्तुत आगम में ही उपलब्ध होता है । चूर्णिकार के अनुसार कालिक आगम दिन रात के प्रथम प्रहर व चरम प्रहर में पढ़े जाते थे । उत्कालिक आगम अकाल बेला को छोड़कर हर समय पढ़े जाते थे । ' इससे यह स्पष्ट है कि स्वाध्याय काल की मर्यादा के आधार पर यह विभाग किया गया है । दशवैकालिक को उत्कालिक की सूची में और उत्तराध्ययन को कालिक की सूची में रखने का हेतु क्या है ? इसका स्पष्ट समाधान नहीं किया जा सकता। केवल स्वाध्याय व्यवस्था को ही हेतु माना जा सकता है । उत्कालिक की सूची में उनतीस आगमों का उल्लेख है १. दशर्वकालिक दशवेकालिक के दस अध्ययन हैं और चूंकि वह विकाल में रचा गया, इसलिए इसका नाम दशवैकालिक रखा गया । इसके कर्त्ता श्रुतकेवली शय्यंभव हैं। अपने पुत्र- शिष्य मनक के लिए उन्होंने इसकी रचना की। वीर सम्वत् ७२ के आसपास 'चम्पा' में इसकी रचना हुई । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य दसवेआलियं की भूमिका । २. कल्पिककल्पिक इसमें कल्प और अकल्प का वर्णन था । यह सम्प्रति अनुपलब्ध है । ३. क्षुल्लकल्पश्रुत इसके कर्त्ता भद्रबाहु हैं । यह लघु आकारवाला विधिनिषेधात्मक आचार शास्त्र है । ४. महाकल्पश्रुत इसके कर्त्ता भद्रबाहु हैं। यह मह्त् आकारवाला विधि निषेधात्मक आचार शास्त्र है । १. तत्त्वार्थवार्तिक १।२०१४ : स्वाध्यायकाले नियतकाल कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । २. अणुओगदाराई, सू. ५७१ ३. आवश्यक निर्युक्ति, गा. ७७६,७७७ : कालिययुर्य च इसिमासिवाई तो व सूरपन्नत्ती । सय्यो य विट्टिवाओ उत्थओ होइ अो जं च महाकम्प जाणि सागि अाणि । चरणकरणायो ति कालिपत्ये उगवाणि ॥ ४. विशेषावश्यकभाव्य वा. २२९४-९५ की वृतिइका दशायं सर्वमपि तं कालादिविधिनाऽधीयत इति कालिकमुच्यते । तत्र प्रायश्चरण करणे एव प्रतिपाद्येते । अतः आर्यरक्षित सूरिभिस्तत्र चरणकरणानुयोग एव कर्तव्यतयानुज्ञातः । Jain Education International ५. विशेषावश्यकभाष्य, गा. २२९४, २२९५ की वृत्तिऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनानि तेषु च नमिकपिलादिमह र्षीणां संबन्धीनि प्रायो धर्माख्यानकान्येव कथ्यन्त इति धर्मरूपानुयोग एव तत्र व्यवस्थापितः । सूर्यप्रज्ञप्त्यादी तु चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्रादिचारगणितमेव प्रायः प्रतिपाद्यत इति तत्र गणितानुयोग एवं व्यवस्थापितः । दृष्टिवादे तु सर्वस्मिन्नपि चालना - प्रत्यवस्थानादिभिर्जीवादिद्रव्याण्येव प्रतिपाद्यन्ते, तथा सुवर्ण रजत मणि-मौक्तिकादिद्रव्याणां च सिद्धयोऽभिधीयन्त इति योग एव । ६. नन्दी चूर्ण, पृ. ५७: तत्थ 'कालियं' जं दिन रातीणं पदम चरमपोरिस पग्जिति पुरा कालवेल पढिज्जति तं उक्कालियं । 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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