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________________ १५८ नंदी ५. औपपातिक-- औपपातिक अंगबाह्य आगम है इसलिए यह गणधर कृत नहीं है । किसी स्थविर ने इसकी रचना की है। इसमें अध्ययन, उद्देशक आदि का विभाग नहीं है। प्रस्तुत सूत्र का मुख्य प्रतिपाद्य उपपात है। समवसरण इसका प्रासंगिक विषय है। मुख्य प्रतिपाद्य के आधार पर प्रस्तुत सूत्र का नाम 'ओवाइय' किया गया है। इसका संस्कृत रूप 'औपपातिक' होता है। औपपातिक का मुख्य विषय पुनर्जन्म है। उपपात के प्रकरण में 'अमुक प्रकार के आचरण से अमुक प्रकार का आगामी उपपात होता है', यही विषय चर्चित है। उपोद्घात प्रकरण में अनेक वर्णक हैं-नगरी वर्णक, चैत्य वर्णक, उद्यान वर्णक, राज वर्णक आदि-आदि । इन वर्णकों से प्रस्तुत सूत्र वर्णक सूत्र बन गया । ६. राजप्रश्नीय यह स्थविर के द्वारा रचित है। प्रस्तुत सूत्र अध्ययन, उद्देशक आदि विभागों में विभक्त नहीं है। विषय की दृष्टि से इसके दो मुख्य प्रकरण हैं१. सूर्याभदेव २. प्रदेशी राजा का कथानक । प्रस्तुत सूत्र का प्रथम प्रकरण आमलकप्पा नगरी के वर्णन से प्रारम्भ होता है। सूर्याभ के प्रसंग में विमानरचना, प्रेक्षामंडप, नाटयविधि आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। ७. जीवाभिगम प्रस्तुत सूची में आलोच्य आगम का नाम जीवाभिगम है। इस समय आगम का उत्क्षेप पद में जीवाजीवाभिगम नाम उपलब्ध है। इसका प्रारम्भ अजीवाभिगम से होता है। इससे आगे जीवाभिगम का विस्तृत विवेचन है। इसके कर्ता का नाम उपलब्ध नहीं है। उत्क्षेप पद में यह निर्देश मिलता है कि जिनमत में श्रद्धा रखने वाले स्थविरों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन का प्रज्ञापन किया है इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिण्णं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुवीइ तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमं णामायणं पण्णवईसु।' इसका रचनाकाल अज्ञात है। इसमें अनेक स्थानों पर 'जहा पण्णवणाए'--अर्थात् प्रज्ञापना को देखने का संकेत है। इससे ज्ञात होता है कि जीवाजीवाभिगम की रचना श्यामाचार्य के उत्तरवर्ती स्थविरों ने की है। इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आगम संकलन काल में देवधिगणी ने 'जहा पण्णवणाए' का उल्लेख किया है। ___ कुछ भी हो रचनाकाल तक पहुंचने के लिए काफी अनुसंधान की आवश्यकता है। ८. प्रज्ञापना इसके रचनाकार श्यामाचार्य हैं। वे वाचक और पूर्वधर थे। सूत्रकार ने आगम के प्रारम्भ में भगवान महावीर को नमस्कार किया है ववगयजर-मरणभए सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदामि जिणरिदं तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ उनके अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ दृष्टिवाद का निष्यन्द (सार) है। भगवान महावीर ने सब आगमों की प्रज्ञापना की। ग्रन्थकार ने उन्हीं के प्रज्ञापन का संकल्प किया है सुयरयणनिहाणं जिणवरेण, भवियजणणिन्वइकरेण । उवदंसिया भगवया, पण्णवणा सव्वभावाणं ।। १. उवंगसुत्ताणि, खण्ड १, जीवाजीदाभिगमे, ११ ४. नवसुत्ताणि, नंदी, गा. २६ : २. वही ११३-५ ___ हारियागुत्तं साई, च वंदिमो हारियं च सामिज्ज । ३. वही ११ ५. उवंगसुत्ताणि, खण्ड २, पण्णवणा, गा. १ ६. वही, गा. २,३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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