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________________ टिप्पण सूत्र ७४,७५ १. (सूत्र ७४,७५) अङ्गबाह्य आगमों की सूची में पहला आगम है-आवश्यक । उसके रचना और रचनाकार के विषय में यत्र तत्र उल्लेख मिलते हैं। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक अध्ययन के विषय में एक उल्लेख है - यह अध्ययन गुरुजनों के द्वारा उपदिष्ट और आचार्य परम्परा द्वारा आगत है।' मलधारी हेमचन्द्र ने गुरुजन का अर्थ जिन, तीर्थङ्कर और गणधर किया है। इससे सामायिक आवश्यक की प्राचीनता सिद्ध होती है। वर्तमान में आवश्यक का जो स्वरूप है वह महावीर के काल में नहीं था। प्रतिक्रमण प्राचीन है। महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण कहा गया है। चतुर्विशतिस्तव की रचना भद्रबाहु ने की। इसका उल्लेख अनेक व्याख्या ग्रन्थों में मिलता है।' उक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि आवश्यक की रचना अनेक कालखण्डों में हुई है। उसके रचनाकार गौतम, भद्रबाहु आदि अनेक आचार्य हैं। आवश्यक की रचना के विषय में पण्डित सुखलालजी और पण्डित बेचरदासजी का मंतव्य अवलोकनीय है। प्रस्तुत आगम में आवश्यक के छः प्रकार निर्दिष्ट हैं। अनुयोगद्वार के अनुसार आवश्यक छह अध्ययनों का एक श्रतस्कन्ध है।' जयधवला के अनुसार आवश्यक एक श्रुतस्कन्ध के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। उसमें अङ्गबाह्य श्रुत के चौदह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें पहले छः प्रकार हैं--१. सामायिक, २. चतुर्विशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वनयिक, ६. कृतिकर्म । मूलाचार में षडावश्यक की सूची में प्रत्याख्यान पांचवां तथा विसर्ग अथवा कायोत्सर्ग छठा है।' तत्त्वार्थभाष्य में कायव्युत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान का उल्लेख है।' मूलाचार का क्रम भाष्य का संवादी है क्योंकि भाष्य से भी यही फलित होता है कि छह अध्ययनों का अस्तित्व स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में था। इन सब संदभों का निष्कर्ष यह है कि आवश्यक अनेक कालखण्डों में परिवर्तित होता रहा। सूत्र ७६-७८ २. (सूत्र ७६-७८) स्थानाङ्ग सूत्र में कालिक और उत्कालिक का उल्लेख मात्र मिलता है।" अकलंक ने अङ्गबाह्य के कालिक और उत्कालिक १. आवश्यक नियुक्ति, गा. ८७ : सामाइयनिज्जुत्ति वुच्छं उवएसियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण आगयं आणुपुवीए॥ २. विशेषावश्यकभाष्य, गा. १०८१ को वृत्ति--जिनगणधर लक्षणेन गुरुजनेन देशिताम् । ३. ठाणं, ६।१०३ का टिप्पण। ४. (क) आचारांग, वृत्ति प. २११ : आवश्यकान्तर्भूत चतुर्विशतिस्तवस्त्वारातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वा मिनाऽकारि। (ख) सेनप्रश्नोत्तर, उल्लास २: भद्रबाहुस्वामिना आव श्यकान्तर्भूत चतुर्विशतिस्तवरचनमपरावश्यकरचनञ्च नियुक्तिरूपतयाकृतमिति भावार्थः । ५. (क) दर्शन और चिन्तन, पृ. १९४-१९६ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, पृ. ४२,४३ ६. अणुओगदाराई, सू. ६ ७. कषायपाहुड़, पृ. २५ ८. मूलाचार, गा. २२ समदा थवो य वंदण पाडिक्कमगं तहेव णादव्वं । पच्चखाणविसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥ ९. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्, १२० का भाष्य--अङ्गबाह्यमनेकविधं । तद्यथा--सामायिक, चतुर्विशतिस्तवः, वन्दनं, प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानं, दशवकालिकं.... "। १०. ठाणं, २।१०८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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