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________________ ११८ नंदी प्रश्न पर उन्होंने एक विमर्श प्रस्तुत किया है-जिनभद्रगणि ने पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में भावश्रुत स्वीकार किया है' और वह शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से होने वाला विज्ञान है। शब्दार्थ का पर्यालोचन अधार के बिना नहीं हो सकता । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अमनस्क जीवों के अव्यक्त अक्षर लाभ होता है। उससे अमनस्क जीवों में अक्षारानुषक्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इस तथ्य की पुष्टि के लिए आहार आदि की अभिलाषा की चर्चा की गई है। अभिलाषा का अर्थ है 'मुझे वह वस्तु मिले' यह अभिलाषा अक्षरानुविद्ध होती है इसलिए एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में अव्यक्त अक्षर लब्धि अवश्य स्वीकार्य है। प्रज्ञापना' में प्रतिपादित भाषा विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के प्रकंपन की दृष्टि से लब्धि अधार पर नयी दृष्टि से विचार किया जा सकता है । एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीव ध्वनि के प्रकंपनों को पकड़ लेते हैं और उन्हें अव्यक्त अक्षर के रूप में बदल देते हैं । इसे फेक्स मशीन की प्रक्रिया से भी समझा जा सकता है। सूत्र ६० ३. (सूत्र ६०) अनक्षरश्रुत-- श्रत शब्द में श्रवण और श्रोत्रेन्द्रिय की विवक्षा मुख्य है। उच्छ्वास, निःश्वास आदि से जो ज्ञान होता है वह अनक्षारश्रुत है। वस्तुतः वह द्रव्यश्रुत है, श्रुतज्ञान का कारण है ।' विशिष्ट अभिप्रायपूर्वक उच्छ्वास, निःश्वास आदि का प्रयोग होता है तब वह श्रुतज्ञान का कारण बनता है। एकेन्द्रिय जीवों में भाषा नहीं होती । वे अपनी बात दूसरों तक प्रकंपनों के माध्यम से पहुंचाते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों से भाषा का प्रारम्भ होता है । त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय सब भाषा का प्रयोग करते हैं । इनकी भाषा अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दोनों प्रकार की होती है । अक्षर और लिपि की व्यवस्था मनुष्य ने की । कीट, पतंगों और पशु पक्षियों के पास अक्षर और लिपि की व्यवस्था नहीं है । स्थानाङ्ग में भाषा शब्द के दो प्रकार बतलाए गए हैं १. अक्षर संबद्ध-वर्णात्मक २. नोअक्षर संबद्ध-वर्ण रहित । धवला में अक्षर के तीन भेद इस प्रकार हैं१. लब्धि अक्षर-ज्ञानावरण का क्षायोपशमिक भाव । २. निर्वृत्ति अक्षर-अक्षर का उच्चारण-इसकी तुलना व्यञ्जनाक्षर से होती है। निर्वृत्ति अक्षर के दो प्रकार हैंव्यक्त और अव्यक्त ।" समनस्क पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय का अक्षर व्यक्त होता है । अव्यक्त अक्षर द्वीन्द्रिय से लेकर अमनस्क पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तक होता १. विशेषावश्यक भाष्य, गा० १०३ : जह सुहुमं भाविदियनाणं ददिवदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ २. मलयगिरीया वृत्ति, प० १८८ ३ उवंगसुत्ताणि, पण्णवणा, पद ११ ४. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा० ५०२ की वृत्ति : इहोच्छ्वसिताद्यनक्षरश्रुतं द्रव्यश्रुतमात्रमेवाऽवगन्तव्यम्, शब्दमात्रत्वात् ; शब्दश्च भावश्रुतस्य कारणमेव, यच्च कारणं तद् द्रव्यमेव भवतीति भावः । भवति च तथाविधोच्छ्वसित-निःश्वसितादिश्रवणे 'सशोकोऽयं' इत्यादि ज्ञानम् । एवं विशिष्टाभिसन्धिपूर्वकनिष्ठयूतकासितश्रुतादिश्रवणेऽप्यात्मज्ञापनादिज्ञानं वाच्यमिति । अथवा, श्रुतज्ञानोपयुक्ततस्यात्मनः सर्वात्म नवोपयोगात् सर्वोऽप्युच्छ्वसितादिको व्यापारः श्रुतमेवेह प्रतिपत्तव्यम्, इत्युच्छ्वसितादयः श्रुतं भवन्त्येवेति। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ६० : एतदुच्छ्वसितादि अनक्षरश्रुतमिति । सेण्टनं सेण्टितम्, तत् सेष्टितं चानक्षरश्रुतमिति । इदं चोच्छ्वसितादि द्रव्यश्रुत मात्रम्। (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प० १८९ ५. ठाणं, २१२१३ ६ षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ० २६४ : लद्धिअक्खरं णिव्वत्तिअक्खरं संठाणक्खरं चेदि तिविहमक्खरं । ७. वही, प० २६५ : णिवत्तिअक्खरं वत्तमवत्तं चेदि दुविहं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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