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________________ प्र०४, सू० ६०-६४, टि० ३,४ ११६ ३. संस्थान अक्षर-इसकी तुलना संज्ञाक्षर से की जाती है । धवलाकार के अनुसार केवल लब्ध्यक्षर ही ज्ञानाक्षर है। इसकी न्यूनतम मात्रा सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक में मिलती है । इसका उत्कर्ष चतुर्दश पूर्वधर में मिलता है। जहां जीव का वाक् प्रयत्न हो और भाषा वर्णात्मक न हो, वह नोअक्षरात्मक बन जाती है। उच्छ्वास, नि:श्वास वाक प्रयत्न से उत्पन्न नहीं है । अत: भाषात्मक नहीं हैं फिर भी श्रुतज्ञान के कारण हैं इसलिए इन्हें अनक्षर श्रुत माना गया है । अकलंक ने अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत की संयोजना अनुमान, उपमान आदि के साथ की है । उनके अनुसार स्वार्थानुमान--स्वप्रतिपत्ति के काल से अनक्षर श्रुत होता है । परार्थानुमान-दूसरे के लिए प्रतिपादन के काल में अक्षर श्रुत होता है । इसी प्रकार उपमान प्रमाण भी अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत दोनों प्रकार का होता है।' सूत्र ६१-६४ ४. (सूत्र ६१-६४) संजीश्रुत आगम साहित्य में संज्ञा शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा का अर्थ है मनोविज्ञान । एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में दस संज्ञाएं होती हैं। वे संज्ञाएं यहां विवक्षित नहीं हैं । जिनमें ईहा, अपोह आदि की शक्ति है, जिनमें इष्ट के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट से निवृत्त होने की क्रिया है, जिनमें अनेकांतवाद का संज्ञान है उन्हें संज्ञी माना गया है। एकेन्द्रिय जीवों में इष्ट के लिए प्रवत्त और अनिष्ट से निवत्त होने की क्रिया नहीं होती, इसलिए वे असंज्ञी की कोटि में परिगणित एकेन्द्रिय जीव में होनेवाला स्वल्प मनोविज्ञान यहां विवक्षित नहीं है।' संज्ञा के तीन प्रकार निरूपित हैं१. कालिकी २. हेतूपदेशिकी ३. दृष्टिवादोपदेशिकी १. कालिकी संज्ञा कालिकी संज्ञा मानस ज्ञान का विकसित रूप है। इस संज्ञा का अधिकारी गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीव होता है । औपपातिक देव और नारक भी इसका अधिकारी होता है । कालिकी संज्ञा मनुष्य में सर्वाधिक विकसित होती है। उसकी अपेक्षा गर्भज पशुपक्षी आदि, मनुष्य, उपपातज देव और नारक संज्ञी-समनस्क होते हैं। प्रस्तुत आगम में मन के अर्थ में नोइन्द्रिय और कालिकी संज्ञा दो शब्दों का प्रयोग मिलता है। चूर्णिकार के अनुसार कालिकी लब्धि से सम्पन्न प्राणी मनोवर्गणा के अनन्त परमाणुओं का ग्रहण कर मनन करता है, जैसे - चक्षुष्मान व्यक्ति को प्रदीप के प्रकाश में स्फुट अर्थ की उपलब्धि होती है वैसे ही मन के विकास से अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है। १. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ० २६५ : संपहि लद्धिअक्खरं जहणं सुहमणिगोदलद्धिअपज्जतयस्य होदि, उक्कस्सं चोद्दसपुन्विस्स। २. तत्त्वार्थवार्तिक १२०, पृ० ७८ : तदेतत्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपादनकाले अक्षरश्रुतम् । यथा गौस्तथा गवयः केवलं सास्नारहितः इत्युपमानमपि स्वपर प्रतिपत्तिविषयत्वादक्षरानक्षरश्रुते अन्तर्भवति । ३. (क) ठाणं, १०७४, १०५ (ख) नवसुत्ताणि, नंदी, सूत्र ५४, गा०६ ४. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा० ५०६, ५०७: थोवा न सोहणा वि य ज सा तो नाहिकीरए इहई । करिसावणेण धणवं न स्ववं मुत्तिमेत्तेण ॥ जह बहुदन्वो धणवं पसत्थरूवो य रूव होइ । महई च सोहगाए य तह सण्णी नाणसण्णाए । (ख) नन्दी चूणि, पृ० ४५ (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ६१ ५. नंदी चूणि, पृ० ४६ : जस्स सण्णा भवति सो आदिपद___ लोवातो कालिओवदेसेणं सण्णीत्यर्थः । ६. नवसुत्ताणि, नंदी, सू० ४२, ४४,४६, ४८, ६२ ७. नन्दी चूणि, पृ० ४६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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