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________________ प्र०४, सू०५५-५६, टि० १,२ ११७ यद्यपि सकल ज्ञान अक्षर है फिर भी रूढिवशात् वर्ण को अक्षर कहा जाता है ।' १. संज्ञाक्षर २. व्यञ्जनाक्षर ३. लब्ध्य क्षर । चूर्णिकार ने अक्षर के तीन प्रकार भिन्न रूप से बतलाए हैं--१. ज्ञानाक्षर २. अभिलापाक्षर ३. वर्णाक्षर । भाषा विज्ञान सम्मत शब्द की तीन प्रकृतियों से इनकी तुलना की जा सकती है१. चक्षुर् ग्राह्य प्रकृति-लिपिशास्त्रगत रेखाएं। २. श्रोत्र ग्राह्य प्रकृति-उच्चारणशास्त्रगत ध्वनियां । ३. बुद्धि ग्राह्य प्रकृति-वस्तु का अवधारक अर्थ । संज्ञाक्षर संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां संज्ञा का अर्थ संकेत है । अक्षर के जिस संस्थान अथवा आकृति में जिस अर्थ का संकेत स्थापित किया जाता है वह अक्षर संकेत के अनुसार ही अर्थ बोध कराता है। इस संज्ञाक्षर के आधार पर ब्राह्मी आदि सभी लिपियों का विकास हुआ है । अकार के आकार में अकार की ही संज्ञा होती है । इसी प्रकार आकार आदि सभी वर्गों में अपने अपने संस्थानों के आधार पर संज्ञा होती है। इसलिए अकार आदि अक्षरों को संज्ञाक्षर कहा गया है।' चूर्णिकार ने इसे उदाहरण के द्वारा समझाया है। वृत्त और घट की आकृति वाले वर्ण को देखने पर 'ठ' की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है। मलयगिरि ने णकार और ढकार की आकृति का निदर्शन प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार णकार चुल्हे की आकृति वाला और ढकार कुत्ते की वक्रीभूत पूंछ की आकृति वाला है।' मलधारी हेमचंद्र के अनुसार टकार अर्द्धचंद्र की आकृति वाला होता है।' व्यञ्जनाक्षर अकारादि का उच्चारण व्यञ्जनाक्षर है। इससे अर्थ की अभिव्यञ्जना होती है । इसलिए इसका नाम व्यञ्जनाक्षर है।' लब्ध्यक्षर इन्द्रिय और मन इस उभयात्मक विज्ञान से अक्षर का लाभ होता है उसकी संज्ञा लन्धि अक्षर है। हरिभद्र' और मलयगिरि ने श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम और श्रुतज्ञान का उपयोग इन दोनों को लब्धि अक्षर बतलाया है। संज्ञा और व्यञ्जन ये दोनों प्रकार के अक्षर द्रव्यश्रुत हैं, ज्ञानात्मक नहीं हैं। ये श्रुतज्ञान के साधन हैं । लब्धि अक्षर भावश्रुत है, ज्ञानात्मक है। मलयगिरि ने प्रश्न उपस्थित किया है कि लब्धि अक्षर अक्षरानुविद्ध ज्ञान है इसलिए वह समनस्क जीवों के ही हो सकता है । अमनस्क जीव अक्षार को पढ़ नहीं सकते और उसके उच्चारण को समझ नहीं सकते। उनके लब्धि अक्षर संभव नहीं है । इस १. विशेषावश्यक भाष्य, गा० ४५९ : प्रकारं, तत्र नागरी लिपिमधिकृत्य किञ्चित् प्रदर्श्यते-मध्ये जइ वि हु सव्व चिय नाणमक्खरं तह वि रूढिओ वन्नो । स्फाटितचुल्लीसन्निवेशसदृशो रेखासन्निवेशो णकारी वक्रीभण्णइ अक्खरमिहरा न खरइ सव्वं सभावाओ॥ भूतश्वपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि । २. नन्दी चूणि, पृ० ४४ : तत्थ अक्खरं तिविहं-नाणक्खरं ६. विशेषावश्यक भाष्य, गा० ४६४ को वृत्ति : यथा कस्मिअभिलावक्खरं वण्णक्खरं च। श्चिल्लिपिविशेषेऽर्धचन्द्राकृतिष्टकारः घटाकृतिष्ठकार ३. वही, पृ० ४४ : सो य ब्रह्मादिलिविविधाणो अणे इत्यादि। गविधो आगारो। तेसु अकारादिआगारेसु जम्हा अकारे ७. (क) नन्दी चूणि. पृ० ४५ : तच्चेह सर्वमेव भाष्यमाणं अकारसण्णा एव भवति, एवं सेसेसु वि, तम्हा ते सण्णक्खरा अकारादि हकारान्तम् अर्थाभिव्यजकत्वाच्छब्दस्य । मणिता। तमेवं अक्खरं अत्याभिव्यंजकं वंजणक्खरं भवति । ४. वही, पृ० ४४ : जहा व घडागारं दह्र ठकारसण्णा (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ०५९ उप्पज्जतीत्यर्थः । (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १८८ ५. मलयगिरीया वृत्ति, प० १८८ : अक्षरस्याकारादेः संस्था- ८. नन्दी चूणि, पृ० ४५ : अक्खरलद्धी जस्सऽत्थि तस्स इंदियनाकृतिः-संस्थानाकारः, तथाहि-सज्ञायतेऽनयेति मणोभयविण्णातो इह जो अक्खरलाभो उप्पज्जति तं सज्ञा-नाम तन्निबंधनं-तत्कारणमक्षरं संज्ञाक्षरं, संज्ञा लद्धिअक्खरं। याश्च निबंधनमाकृतिविशेषः, आकृतिविशेष एवं नाम्नः ९. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ०५९ : लब्धिः-क्षयोपशमः उपयोग करणाद् ववहरणाच्च, ततोऽक्षरस्य पट्टिकादौ संस्थापितस्य इत्यर्थः। संस्थानाकृति: संज्ञाक्षरमुच्यते, तच्च बाहयादिलिपिभेवतोऽनेक- १०. मलयगिरीया वृत्ति, प. १८८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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