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टिप्पण
सूत्र ५५ १. (सूत्र ५५)
प्रस्तुत सूत्र में श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार बतलाए गए हैं । षट्खण्डागम', कर्मग्रन्थ' (कर्म विपाक) में श्रुतज्ञान के बीस प्रकार बतलाए गए हैं। ये दोनों वर्गीकरण भिन्न-भिन्न अभिप्राय से किये गए हैं। प्रस्तुत वर्गीकरण छह हेतु सापेक्ष है। अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत यह वर्ग अक्षर तथा संकेत के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से किया गया है। संजीश्रुत और असंज्ञीश्रुत-यह वर्ग मानसिक विकास और अविकसित मन के आधार पर किया गया है। सम्यगश्रुत और मिथ्याश्रुत का वर्गीकरण प्रवचनकार और ज्ञाता इन दोनों के आधार पर किया गया है । सादि, अनादि, सपर्यवसित, अपर्यवसित-यह वर्गीकरण कालावधि के आधार पर किया गया है। गमिक और अगमिक--यह वर्गीकरण ग्रन्थ की रचना शैली के आधार पर किया गया है। अङ्ग और अनङ्ग यह वर्गीकरण ग्रन्थकार की दृष्टि से किया गया है।
षट्खण्डागम में श्रुतज्ञान के बीस भेद श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम के आधार पर किया गए हैं।
श्रुतज्ञान के चौदह भेदों की अवधारणा आवश्यक नियुक्ति और नंदी सूत्र में उपलब्ध होती है । देवेन्द्रसूरि कृत कर्म विपाक में श्रुतज्ञान के चौदह और बीस दोनों प्रकार उपलब्ध हैं। इससे पूर्ववर्ती किसी भी आगम ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं है। श्रुतज्ञान के बीस भेदों की अवधारणा कर्मशास्त्रीय है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के कर्मशास्त्र में बीस भेदों का उल्लेख है। षट्खण्डागम में कर्मशास्त्रीय परंपरा का अनुसरण किया गया है। नंदी में प्राप्त चतुर्दश भेद कर्मशास्त्रीय परम्परा से भिन्न हैं। प्रतीत होता है देवेन्द्रसूरि ने अपने कर्म विपाक में नंदी और कर्मशास्त्र दोनों परम्पराओं का समावेश किया है । उमास्वाति ने श्रुत के चौदह अथवा बीस भेदों का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य इन दोनों का उल्लेख किया है। सिद्धसेनगणि और अकलंक ने सूत्रस्पर्शी व्याख्या की है । चौदह भेद की परम्परा का मूल आधार अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य आगम ही प्रतीत होता है।
सूत्र ५६-५९ २. (सूत्र ५६-५६) अक्षरश्रुत
जिसका कभी क्षरण नहीं होता वह अक्षर है । ज्ञान अनुपयोग अवस्था में (विषय के प्रति दत्तचित्तता न होने पर) भी प्रच्युत नहीं होता, इसलिए वह अक्षर है। जिनभद्रगणि ने नयदृष्टि से ज्ञान के क्षर और अक्षर इस उभयात्मक स्वरूप की चर्चा की हैं। नंगम आदि अविशुद्ध नयों की दृष्टि में ज्ञान अक्षर है उसका प्रच्यवन नहीं होता । ऋजुसूत्र आदि नयों की दृष्टि में ज्ञान क्षर है। अनुपयोग अवस्था में उसका प्रच्यवन होता है । घट आदि अभिलाप्य पदार्थ द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य हैं, अक्षर हैं.। पर्यायाथिक दृष्टि से अनित्य हैं, क्षर हैं। १. षटखण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २६०
क्षरतीत्यक्षरम्, न प्रच्यवते अनुपयोगेऽपीत्यर्थः, आतभा२. कर्मग्रंथ (कर्म विपाक), भाग १, गा.७
वत्तणतो, तं च णाणं अविसेसतो चेतनेत्यर्थः । ३. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २६०, २६१, सू० ४७, ९. विशेषावश्यक भाष्य, गा० ४५५-४५७ :
नक्खरइ अणुवओगे वि अक्खरं सो य चेयणाभावो । ४. आवश्यक नियुक्ति, गा० १९
अविसुद्धनयाण मयं सुद्धनयाणक्खरं चेव ॥ ५. कर्मग्रंथ (कर्म विपाक), भाग १, गा० ६, ७
उवओगे वि य नाणं सुद्धा इच्छति जं न तस्विरहे । ६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गा० ३१६, ३१७
उप्पाय-मंगुरा वा जं तेसि सव्वपज्जाया ॥ ७. तत्त्वार्थ सूत्र, १२०
अभिलप्पा वि य अत्था सव्वे दक्वट्ठियाए जं निच्चा । ८. नन्दी चूणि, पु०४४ : तत्थ नाणक्खरं 'क्षर संचरणे' न
पज्जायेणानिच्चा तेण खरा अक्खरा चेव ॥
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