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2. वि.सं. 1599 में परमसुविहित-खरतरगच्छविभूषण पाठकप्रवर
श्रीमत्साधुरङ्गगणि ने विस्तृत टीका के रूप में 13416 श्लोकमान सूत्रकृताङ्ग दीपिका की रचना की है, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं अपनी दीपिका की समाप्ति में किया है। इसका प्रकाशन गोडीपार्श्व
जैन ग्रन्थामाला द्वारा सन् 1950 में हुआ है। 3. 20वीं शती में स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री घासीलालजी म.
ने भी सूत्रकृतांग-सूत्र पर बहुत ही विस्तृत संस्कृत टीका की रचना की है, जिसका राजस्थानी मिश्रित गुजराती में शब्दार्थ तथा हिन्दी अनुवाद भी कर दिया गया है।" उनकी शैली व्यासात्मक है तथा कहीं-कहीं पुनरावृत्ति भी हुई है। इस टीका में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत करने के साथ जहाँ लेखक का स्वतन्त्र चिन्तन अभिव्यक्त हुआ है, वहीं परम्परागत मान्यताओं को पुष्ट करने का प्रयास भी हुआ है।
सूत्रकृतांगवार्तिक (टबा) जैनागमों पर विपुल संस्कृतसाहित्य होते हुये भी जैनाचार्यों ने साधारण पाठकों के हित की दृष्टि से लोकभाषा में सरल व सुबोध आगमिक व्याख्याएँ लिखी है, जिन्हें बालावबोध कहा जाता है। इनकी भाषा तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् राजस्थानी मिश्रित प्राचीन गुजराती है - 1. साधुरत्नसूरि के शिष्य पार्श्वचन्द्रगणि ने वि. सं. 1572 में 8 हजार
श्लोक प्रमाण सूत्रकृतांग बालावबोध की रचना की है, जिसका प्रकाशन वि.सं. 1936 में मुंबई द्वारा हो चुका है। इस प्रकाशन में शीलांककृत टीका, हर्षकुलकृत दीपिका, तथा पार्श्वचन्द्रकृत बालावबोध- इन तीनों
का समाहार है। 2. विक्रम की 18वीं शताब्दी में लोंकागच्छीय टबाकार मुनि धर्मसिंहजी
ने 27 आगमों पर टवे लिखे है। सूत्रकृतांगबालावबोध में रचनाकार ने मूलसूत्र पर बहुत ही सरल व्याख्या प्रस्तुत की है। परन्तु कहीं-कहीं सूत्रों का प्राचीन टीकाओं से अभिप्रेत अर्थ को छोड़कर स्व-सम्प्रदाय सम्मत अर्थ किया गया है, जो स्वाभाविक ही है।
सूत्रकृतांग सूत्र का परिचय एवं उसका व्याख्या साहित्य / 91
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