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में शक् संवत 784 का। किसी में शक् संवत 798 का उल्लेख है, तो किसी गुप्त संवत 772 का " । इससे यही सिद्ध होता है कि आचार्य शीलांक शक् की 8वीं अर्थात् विक्रम की नवीं - दशवीं शताब्दी में हुए होंगे | 24
विषयवस्तु -
आचार्य शीलांक द्वारा लिखित सूत्रकृतांगवृत्ति मूल तथा नियुक्त्यनुसारी है। टीकाकार ने अपना विवरण शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं रखा है, अपितु प्रत्येक विषय का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। इस टीका में दार्शनिक चिन्तन की प्रधानता होने पर भी विवेचन क्लिष्ट न होकर सहजगम्य है। विषय के स्पष्टीकरण के लिये यत्र-तत्र पाठान्तर प्रस्तुत किये है। साथ ही संस्कृत तथा प्राकृत के अनेक श्लोक व गाथाओं को भी उद्धृत किया है परन्तु कहीं पर भी उनके रचयिता अथवा तत्संबद्ध ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं किया है । 'तदुक्तम्' 'तथा चोक्तम्', ‘उक्तञ्च’, ‘अन्यैरप्युक्तम्' इत्यादि पदों के द्वारा ही समस्त उद्धरणों को प्रयुक्त किया है।
टीकाकार ने टीका के प्रारम्भ में जिनेश्वरदेव को नमस्कार करते हुये प्रस्तुत विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की है । पश्चात् अनके वादों का नामनिर्देशपूर्वक दार्शनिक - शैली में खण्डन- मण्डन किया है। स्वमृत - परमत की मान्यताओं का निरूपण करते हुए स्वमत की महत्ता का अनेक युक्तियों द्वारा प्रतिपादन तथा परमत का अनेक हेतुओं द्वारा निरसन उनकी विलक्षण प्रतिभा को उजागर करता है । टीका के अन्त में टीकाकार ने इसके लेखन में वाहरिगणि के आत्मीय सहयोग का भी उल्लेख किया है। 5 प्रस्तुत टीका का ग्रन्थमान 12850 श्लोक प्रमाण है । तथापि 13000, 13325, 14000 होने का भी उल्लेख मिलता है । "
सूत्रकृतांग की अन्य टीकाएँ
शीलांकाचार्य के अतिरिक्त और भी अनेक श्रुतधर आचार्यों ने सूत्रकृतांगसूत्र पर टीका साहित्य का निर्माण किया है, जो इस प्रकार है
1. वि. सं. 1583 में हर्षकुलगणि ने सूत्रकृतांगदीपिका की रचना की, जिसका ग्रन्थमान 6600, 8600, 7100, तथा 7000 आदि भिन्नभिन्न श्लोक प्रमाण माना जाता है। यह संख्या मूल के साथ मानी है। इसका अनुवाद तथा सम्पादन भीमसिंह माणेक द्वारा एवं प्रकाशन वि.सं. 1936 में मुंबई द्वारा हुआ है। 57
90 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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