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रचनाकार -
चूर्णिकार के रूप में जिनदासगणिमहत्तर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके जीवन चरित्र के सम्बन्ध में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है। निशीथ विशेष चूर्णि के अन्त में चूर्णिकार का नाम जिनदास बताते हुये प्रारम्भ में उनके विद्यागुरु के रूप में प्रद्युम्न, उत्तराध्ययन चूर्णि के अन्त में उनके धर्मगुरु का नाम वाणिज्य कुलीन कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपाल गणिमहत्तर बताया गया है। नन्दी चूर्णि के अन्त में भी चूर्णिकार द्वारा दिया गया परिचय अस्पष्ट ही है। रचनाकाल -
जिनदास के समय के विषय में इतना कहा जा सकता है कि ये भाष्यकार आचार्य जिनभद्र के बाद तथा वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र के पूर्व हुए है। इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्र के भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग इनकी चूर्णियों में हुआ है जबकि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीकाओं में इनकी चूर्णियों का पूरा उपयोग किया है। आचार्य जिनभद्र का समय वि.सं. 600660 के निकट है। तथा आचार्य हरिभद्र का समय वि.सं. 757-827 के बीच का है। ऐसी दशा में चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का समय वि.सं. 650750 के बीच में मानना चाहिये। नन्दी चूर्णि के अन्त में उसका रचनाकाल शक संवत 598 अर्थात् वि. सं. 733 निर्दिष्ट है।'' इससे भी यही सिद्ध होता है। इन्होंने वस्तुत: कितनी चूर्णिया लिखी, यह अद्यावधि पर्यन्त अनिश्चित है। तथापि परम्परा से निम्नांकित चूर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर की मानी जाती है - निशीथविशेष चूर्णि, नन्दी चूर्णि, अनुयोगद्वार चूर्णि, आवश्यक चूर्णि, दशवैकालिक चूर्णि, उत्तराध्ययन चूर्णि और सूत्रकृतांगचूर्णि। विषयवस्तु -
सूत्रकृतांगचूर्णि° सूत्रकृतांग नियुक्ति के आधार पर लिखी गयी है। आचारांगचूर्णि तथा सूत्रकृतांगचूर्णि की शैली में अत्यधिक साम्यता है। यह चूर्णि संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में निबद्ध है तथापि संस्कृत का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। विषय विवेचन संक्षिप्त होने पर भी स्पष्ट है। नियुक्ति में जिन विषयों पर विवक्षा की गयी है, उन्हीं विषयों की चूर्णि में कुछ विस्तृत रूप से व्याख्या की गयी है। नियुक्ति का अनुसरण करते हुये इस चूर्णि में जहाँ प्रत्येक अध्ययन के नाम का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है, वहीं विवक्षित विषय
88 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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