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के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिये आचार्य भद्रबाहु ने प्राकृत पद्य में 10 नियुक्तियों की रचना की, जिसमें सूत्रकृतांगनियुक्ति का 5वाँ स्थान है। यह सूत्रकृतांगसूत्र का सर्वप्रथम तथा सर्वाधिक प्राचीन व्याख्या ग्रन्थ है। रचनाकाल -
सूत्रकृतांगनियुक्ति के कर्ता नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु, छेदसूत्रकार, चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु से भिन्न है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने अपनी दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति एवं पंचकल्पनियुक्ति के प्रारम्भ में छेदसूत्रकार भद्रबाहु को नमस्कार किया है। नियुक्तिकार भद्रबाहु प्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सहोदर माने जाते है। ये अष्टांग निमित्त तथा मंत्रविद्या में पारंगत नैमित्तिक भद्रबाहु के रूप में भी प्रसिद्ध है। उपसर्गहर स्तोत्र तथा भद्रबाहुसंहिता भी इन्हीं की रचनाएँ है। वराहमिहिर वि.सं. 532 में विद्यमान थे, क्योंकि 'पंचसिद्धान्तिका' के अन्त में शक संवत् 427 अर्थात् वि.सं. 562 का उल्लेख है। नियुक्तिकार भद्रबाहु का भी लगभग यही समय है। अत: नियुक्तियों का रचना काल वि.सं. 500600 के बीच में मानना युक्तियुक्त है।"
नियुक्ति की व्याख्यापद्धति बहुत प्राचीन है। नियुक्तिकार ने इन आगमिक नियुक्तियों में जैन परम्परागत अनेक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की सुस्पष्ट व्याख्या की है, जिसमें उन्होंने निक्षेपपद्धति का आधार लिया है। निक्षेपपद्धति में किसी एक शब्द के समस्त सम्भावित अर्थों का निर्देश करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। आचार्य भद्रबाहु ने अपनी नियुक्तियों में प्रस्तुत अर्थ के निश्चय के साथ ही तत्सम्बद्ध अन्य बातों का भी निर्देश किया है। विषयवस्तु
सूत्रकृतांग नियुक्ति में 205 गाथाएँ है, जो प्राकृत में निबद्ध है। इसमें सूत्रकृतांग में आये शब्दों की व्याख्या न करके नियुक्तिकार ने अध्ययनगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है। नियुक्ति के प्रारम्भ में सूत्रकृतांग के आधार पर सूत्र एवं कृत की व्याख्या करते हुए गाथा दो में इसके तीन गुण निष्पन्न नामों का उल्लेख किया गया है। कालकरण की व्याख्या भी ज्योतिष् की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस नियुक्ति में मुख्य रूप से समय, उपसर्ग, स्त्री, पुरुष, नरक, स्तुति, धर्म, वीर्य, शील, समाधि, मार्ग, ग्रहण, पुण्डरीक, सूत्र, आर्द्र, अलं, आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से विशद विवेचन हुआ है। इसमें समय, वीर्य, मार्ग आदि शब्दों 86 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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