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(छन्द) का लक्षण वृत्तिकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है -
वैतालीय लगनैर्धना: षड् युक्पादेऽष्टौ समे च लः।
न समोऽत्र परेण युज्यते, नेतषट् च निरन्तरा युजोः॥ जिस वृत्त के प्रत्येक पाद के अन्त में रगण, लघु और गुरु हो, प्रथम और तृतीय पाद में छ:-2 मात्राएँ हो, द्वितीय तथा चतुर्थ पाद में आठ-2 मात्राएँ हो, सम संख्या वाला लघु परवर्ण से गुरु न किया जाता हो तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में लगातार छ: लघु न हो उसे वैतालीय छन्द कहते है।
3. उपसर्ग अध्ययन में श्रमण धर्म के पालन में आने वाले विभिन्न उपसर्गों का वर्णन है।
4. स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन में स्त्री सम्बन्धी अनुकूल उपसर्गों को सहन करते हुये साधक को ब्रह्मचर्य में स्थिर रहने की प्रेरणा दी गयी है।
5. नरकविभक्ति अध्ययन में नरक के दारूण दु:खों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
6. वीरस्तुति अध्ययन में परमात्मा महावीर की लोक की सर्वोत्तम उपमाओं से स्तुति की गयी है।
7. कुशील परिभाषा अध्ययन में शील-अशील तथा कुशील का वर्णन
8. वीर्य अध्ययन में पण्डितवीर्य तथा बालवीर्य को व्याख्यायित किया गया है।
9. धर्म अध्ययन में वीतराग प्ररूपित लोकोत्तर धर्म का प्रतिपादन है।
10. समाधि अध्ययन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपरूप भाव समाधि को उपादेय बताया गया है।
11. मार्ग अध्ययन में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप प्रशस्त भाव मार्ग को आचरणीय बताया गया है।
12. समवसरण अध्ययन सूत्रकृतांग सूत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन है। इसमें तत्कालीन क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादीइन चारों वादों के 36 3 भेदों का उल्लेख करते हुए स्वाग्रही होने से उन्हें मिथ्या बताया गया है तथा इन वादों की दार्शनिक समालोचना करते हुये स्वमत की स्थापना द्वारा सापेक्ष दृष्टिकोण को सम्यक् बताया गया है।
13. याथातथ्य अध्ययन में प्रत्येक सूत्र के अर्थ-भावार्थ-परमार्थ आदि 82 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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