________________
है। अंगपण्णति में बताया गया है कि सूत्रकृतांग में ज्ञान - विनय, निर्विघ्न अध्ययन, सर्वसत्क्रिया, प्रज्ञापना, सुकथा, कल्प्य, व्यवहार, धर्मक्रिया, छेदोपस्थापन, यतिसमय, परसमय एवं क्रियाभेद का निरूपण है।
इस प्रकार सचेलक तथा अचेलक ग्रन्थों में निर्दिष्ट सूत्रकृतांग के विषय अधिकांशतया वर्त्तमान वाचना में विद्यमान है। यह अवश्य है कि किसी विषय का निरूपण मुख्य रूप से हुआ है तो किसी का गौण रूप से ।
सूत्रकृतांग सूत्र का संक्षिप्त अध्ययन परिचय
प्रथम श्रुतस्कंध
1. समय अध्ययन - सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का प्रारम्भ एक महत्त्वपूर्ण शब्द से होता है। प्रारम्भिक गाथा में ही सम्पूर्ण सूत्र की रचना का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है । प्रस्तुत प्रथम गाथा में परमात्मा ने प्रश्नात्मक भाषा का उपयोग करते हुये सम्पूर्ण ग्रन्थ को समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है - "बुज्झिज्ज त्तिउट्टेज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरे ? किं वा जाणं तिउट्टइ ?" जागे एवं परमात्मा ने बन्धन किसे कहा है, उसे समझे । 'बुज्झिज्ज' यह एक ही शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो जाग जाता है, वह कभी संतप्त नहीं होता ।
प्रथम श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन समय है। इसमें परसमय का परिचय देकर उसका निरसन किया गया है। आगे इसी में परिग्रह को बंध और हिंसा को वैरवृत्ति का कारण बताते हुए परवादियों का परिचय दिया गया है। इस आगम की यह विशिष्टता है कि इसमें पहले परिचय और बाद में निरसन की शैली को अपनाया गया है। इसमें आगे नियुक्तिकार ने 2 गाथापञ्चक के द्वारा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों के अर्थाधिकारों का संक्षिप्त परिचय दिया है। इसी क्रम में प्रथम अध्ययन में वर्णित वादों का भी संक्षेप में उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है- पंचमहाभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, अफलवाद (क्षणिकवाद), नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद, कर्मोपचय निषेधवाद, लोकवाद, अवतारवाद आदि परसमय (सिद्धान्त) के खण्डन तथा स्वसमय के मण्डन की चर्चा की गयी है।
2. वैतालिय अध्ययन में शरीर की अनित्यता, उपसर्ग सहन, काम- परित्याग, कषायजय का सम्यक् उपदेश दिया है। इस अध्ययन में प्रयुक्त वैतालिय वृत्त सूत्रकृतांग सूत्र का परिचय एवं उसका व्याख्या साहित्य / 81
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org