SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंगों में द्रव्यानुयोग का प्रतिपादन गौण है तथा आचार शास्त्र की मुख्यता है । इसी प्रकार दृष्टिवाद में गौण रूप से आचार की विवक्षा है । एतदर्थ ही चूर्णिकार ने प्रस्तुत आगम को चरणकरणानुयोग माना है । वृत्तिकार आचार्य अभयदेव ने इसमें मुख्यतया द्रव्य का प्रतिपादन होने से इसे द्रव्यानुयोग माना है। इस प्रकार चूर्णिकार तथा वृत्तिकार दोनों के वर्गीकरण सापेक्ष है । सूत्रकृतांग सूत्र नियुक्तिकार" ने प्रस्तुत सूत्र के रचनाकार के विषय में किसी व्यक्ति विशेष का नाम उल्लिखित नहीं किया है, तथापि उनका यह कथन है कि तीर्थंकरों के वचनों को सुनकर कर्मों के क्षयोपशम से एकाग्रचित वाले गौतमादि गणधरों ने जिस सूत्र की रचना की है, उसका नाम सूत्रकृत है। अथवा गणधरों ने अक्षरगुणमतिसंघटना और कर्मपरिशाटना इन दोनों के योग से अथवा वाक्योग और मनोयोग से इस सूत्र की रचना की थी। इसलिये भी इसका नाम सूत्रकृत है। 12 निर्युक्तिगत सूत्रकृत की इस व्याख्या से यह स्पष्ट है कि तीर्थकर जो देशना देते है, उससे गौतमादि समस्त गणधर पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से द्वादशांगी की रचना करते है। के रचनाकार भगवान महावीर के 11 गणधरों में से 9 गणधर तो भगवान के निर्वाण से पूर्व ही मुक्त हो गये थे । आर्य गौतम तथा आर्य सुधर्मा - ये दो गणधर ही विद्यमान रहे। इसमें भी इन्द्रभूति गौतम तो भगवान महावीर के निर्वाण की रात्रि केवल बन गये तथा 12 वर्ष पश्चात् आर्य सुधर्मा को अपना गण सौंपकर निर्वाण को प्राप्त हो गये । अतः सुधर्म गणधर को छोड़कर शेष दसों गणधरों की शिष्य परम्परा तथा वाचनाएँ उनके निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गयी। इस प्रकार भगवान महावीर की पट्टपरम्परा के उत्तराधिकारी आर्य सुधर्मा की ही अंग वाचना शिष्य परम्परा द्वारा प्रचलित होती हुई वर्त्तमान में सम्प्राप्त है। इस तथ्य को पुष्ट करने वाले प्रमाण आगामों में यत्र-तत्र उपलब्ध होते है। आचारांग सूत्र का उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य है - 'सुयं में आउसं! तेण भगवया एवमक्खायं । ' अर्थात् - हे आयुष्मान् ! मैंने सुना है- भगवान महावीर ने ऐसा कहा है।' इस वाक्य रचना से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि गुरु अपने शिष्य से वही बात कह रहा है, जो उसने स्वयं भगवान महावीर के मुखारविन्द से सुनी थी । इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र सुधर्मगणधर की रचना है, किन्तु वर्त्तमान में सूत्रकृतांग सूत्र का परिचय एवं उसका व्याख्या साहित्य / 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy