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अनुवाद परम्परा
व्याख्या साहित्य की अन्तिम विधा टब्बा के पश्चात् अनुवाद युग का प्रारम्भ हुआ। मुख्य रूप से आगम साहित्य का अनुवाद तीन भाषाओं में उपलब्ध होता है - हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी ।
हिन्दी अनुवाद
शास्त्रों के अनुसार प्राचीन समय में आगम आम जनता को पढ़ने की अनुमति मूर्तिपूजक परम्परा में नहीं है। मूर्तिपूजक परम्परा की यह शास्त्रीय मान्यता है कि आगम स्वाध्याय से पूर्व विधिवत् तपश्चर्या करनी होती है, जिसे जैन शास्त्रीय भाषा में योगोद्रहन कहते हैं। जब तक तपस्या पूर्वक वांचना ली जाती, आगम पठन के अधिकारी नहीं हो सकते। योगोद्वहन एक अपेक्षा से आगम पाठ के लिए लाइसेंस है। चूँकि गृहस्थ योगोद्वहन नहीं कर सकते, अतः वे मूल आगम पढ़ने के अधिकारी नहीं हो सकते। और इसी कारण मूर्तिपूजक परम्परा में अनुवाद की परम्परा नहीं पनप सकी । फिर भी जब अन्य सम्प्रदायों में आगम अनुवाद की परम्परा चली तो मूर्तिपूजक परम्परा ने भी कुछ अनुवाद किये ।
खरतरगच्छीय आचार्य जिनआनन्दसागरसूरि ने अनुत्तरोपपातिकदशा, उपासकदशा एवं औपपातिक सूत्र आदि आगमों का अनुवाद किया ।
स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में योगोद्वहन संबंधी मान्यता न थी । अत: उनमें अनुवाद का कार्य लगातार होता रहा । अमोलकऋषि स्थानकवासी परम्परा के आचार्य थे। उन्होंने 32 आगमों का हिन्दी में अनुवाद किया ।
आत्मारामजी महाराज ने आगमों का अनुवाद एवं व्याख्याएँ लिखी । आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, अनुत्तरोपपातिक, उपासकदशा, अनुयोगद्वार, अन्तकृद्दशा, स्थानांग आदि पर हिन्दी में विस्तृत विवेचन लिखा ।
आचार्य जवाहरलालजी की निश्रा में पण्डित अंबिकादत्त ओझा द्वारा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की टीका का हिन्दी अनुवाद तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के मूल मात्र का अनुवाद चार भागों में प्रकाशित हुआ ।
आचार्य हस्तीमलजी म. ने दशवैकालिक, नन्दी, प्रश्नव्याकरण, अन्तगडदशा आदि आगमों के अनुवाद किये। श्री सौभागमलजी म. ने आचारांग का, ज्ञानमुनि ने विपाकसूत्र का, पं. विजयमुनि ने अनुत्तरोपपातिकदशा का, पं. हेमचन्द्रजी ने प्रश्नव्याकरणसूत्र का, अमरमुनि ने सूत्रकृतांग का अनुवाद एवं विस्तृत हिन्दी
जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 65
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