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________________ आगम विच्छेद का क्रम भगवान् महावीर के निर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास हुआ। अर्थ की अपेक्षा से उनके साथ ही पूर्व विच्छिन्न हो गये । वज्रस्वामी तक दश पूर्व की परम्परा चली । वज्रस्वामी भगवान् महावीर के निर्वाण के 551 वर्ष पश्चात् स्वर्ग पधारे। उस समय दशवां पूर्व नष्ट हुआ। दुर्बलिका पुष्यमित्र नौ पूर्व के ज्ञाता थे। उनके साथ ही नवम पूर्व भी विच्छिन्न हो गया। इनका स्वर्गवास भगवान् महावीर के निर्वाण के 604 वर्ष पश्चात् हुआ । इस प्रकार पूर्व विच्छेद की यह परम्परा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक चलती रही। वे स्वयं एक पूर्व के ज्ञाता थे । इतना साहित्य विलुप्त होने के बाद भी आगमों का मौलिक भाग आज भी विद्यमान है । परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की यह मान्यता नहीं है। वैदिक वाङ्मय की तरह जैनागम सुरक्षित नहीं रहने का मुख्य कारण है कि यहाँ लेखन परम्परा देवर्द्धिगणि से ही प्रारम्भ हुई। पूर्व में तो गुरु-1 -शिष्यों में मौखिक रूप से ही आगम पाठ चलते थे । जिनशासन देविर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का कृतज्ञ है कि उन्होंने मूल आगम के संरक्षण के लिए अल्पारम्भी लेखन क्रिया को बहुजनहिताय प्रारम्भ किया । आगम लेखन युग जैन दृष्टि से चौदह पूर्वों का लेखन कभी हुआ ही नहीं है। इसके लेखन में कितनी स्याही अपेक्षित है, इसकी कल्पना अवश्य की गई है। नौवीं शताब्दी में मथुरा और वल्लभी में जो श्रमण सम्मेलन हुआ, उसमें एकादश अंगों को व्यवस्थित किया गया। आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की। नौवीं शताब्दी के अन्त में आगम लेखन की परम्परा प्रारम्भ हुई, परन्तु आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट संकेत देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण से ही मिलता है। फिर भी यह मान्यता अवश्य रही कि श्रमण स्वयं अपने हाथ से कुछ न लिखे क्योंकि लेखन में निम्न दोषों की संभावना है - 1. 2. अक्षर लिखने से कुन्थु आदि त्रस जीवों की हिंसा होती है, अतः पुस्तक लिखना संयम विराधना का कारण है । " पुस्तकों को एक ग्राम से दुसरे ग्राम ले जाते समय कन्धे छिलते हैं, घाव हो जाते हैं, व्रण हो जाते है । जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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