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सम्मेलन मथुरा में हुआ, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। ये दोनों वाचनाएँ समकालीन ही हुई। उन्हें भी बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो गया था। जो स्मृति में था, उसी का संकलन कर व्यवस्थित किया। अतः इसे वल्लभी या नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं।"
ऐतिहासिक तथ्यों द्वारा यह प्रतिपादित होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के विभाजन से जिस यापनीय संघ का उदय हुआ, उसमें आर्य स्कंदिल के आगम ही मान्य थे। इस परम्परा का प्रभाव मध्य एवं दक्षिण भारत में था। यापनीय ग्रन्थों में जो गाथाएँ उपलब्ध है, वे अर्धमागधी या महाराष्ट्री प्राकृत में नहीं, अपितु शौरसेनी में है।
__एक ही समय में एक साथ दो वाचानएँ होने के पीछे यह सम्भावना भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। पञ्चम वाचना
भगवान महावीर के निर्वाण की दशवीं शताब्दी में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की निश्रा में पुनः श्रमणसंघ वल्लभी में एकत्र हुआ। स्वयं देवर्द्धिगणि ग्यारह अंग व एक पूर्व से कुछ अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। स्मृति दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता आदि के कारण श्रुत साहित्य का अधिकांश भाग विच्छिन्न हो गया था। देवर्द्धिगणि ने अपनी प्रखर प्रज्ञा से उसे संकलित कर पुस्तकारूढ़ करने का पुरुषार्थ किया। पूर्व में हुई माथुरी एवं वल्लभी वाचना का समन्वय कर उसमें एकरूपता लाने का प्रयास भी किया। जहाँ मतभेद अधिक नजर आये, वहाँ मूल पाठ में माथुरी वांचना के पाठों को स्वीकार किया एवं वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया।
देवर्द्धिगणि ने ही सर्वप्रथम आगमों को पुस्तकारूढ़ किया। उन्होंने यह ध्यान भी रखा कि जहाँ-जहाँ पाठों में साम्यता थी, वहाँ-वहाँ उनका पुनरावर्तन न करते हुए उसके लिये उस ग्रन्थ एवं स्थल का निर्देश कर दिया। जैसे 'जहा उववाइए, जहा पण्णवणाए'। भगवान् महावीर के निर्वाण पश्चात् हुई मुख्य-मुख्य घटनाओं का वर्णन भी आगमों में किया। वल्लभी में होने के कारण यह वाचना वल्लभी वाचना के रूप में प्रसिद्ध हुई। यह अन्तिम वाचना थी। इसके पश्चात् सर्वमान्य कोई वाचना नहीं हुई। वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी के बाद पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गयी। 58 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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