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1. सामायिक, छेदोपस्थापनीय, 3. परिहारविशुद्धि, 4. सूक्ष्मसंपराय और 5. यथाख्यात । " वर्तमान में अन्तिम तीन चारित्र का विच्छेद माना जाता है। सामायिक चारित्र अल्पकालीन होता है । छेदोपस्थापनीय चारित्र ही यावज्जीवन रहता है । यावज्जीवन जिसका पालन होगा, प्रायश्चित्त उसी में आयेगा और छेद सूत्रों में मात्र प्रायश्चित्त की ही चर्चा है । अतः सम्भव है, विषय-वस्तु के आधार पर इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र से सम्बन्धित करते हुए इसका नाम छेदसूत्र रखा होगा ।
दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प- ये सूत्र नौवें पूर्व से उद्धृत किये गये ।" उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र नाम दिया हो, यह भी सम्भव है। 74
छेदसूत्रों को उत्तम माना जाता है, इसका उत्तर प्रश्न करने के साथ ही श्री जिन - दासगणि देते है। चूँकि छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त की विधि है और प्रायश्चित्त से चारित्र की विशुद्धि होती है, अतः ये सूत्र उत्तम माने गये है । " छेदसूत्र छह है - दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प, जीतकल्प, निशीथ एवं महानिशीथ ।
आगमों की रचना के प्रकार
जैन आगमों की रचना दो प्रकार से हुई है - कृत तथा निर्यूढ ।
कृत - जिन आगमों का निर्माण स्वतन्त्र रूप से हुआ है, उन्हें कृत, कहते हैं। जैसे गणधरों द्वारा द्वादशांगी का निर्माण एवं स्थविरों द्वारा उपांग का निर्माण कृत आगम कहलाते है ।
निर्यूढ - जिन आगमों की रचना पूर्वी तथा द्वादशांगी से उद्घृत करके हुई है, उन्हें निर्युढ आगम कहते हैं । निर्यूह आगम स्थविरों द्वारा संकलित मात्र होते हैं । निर्यूह आगम निम्न माने गये हैं 1. आचारचूला, 2. दशवैकालिक, 3. निशीथ, 4. दशाश्रुतस्कन्ध, 5. बृहत्कल्प, 6. व्यवहार तथा 7. उत्तराध्ययन का परिषह अध्ययन | 76
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इन समस्त निर्यूढ आगमों का संकलन भिन्न-भिन्न पूर्वी एवं अंगों से किया
गया है।
यहाँ यह स्पष्ट जान लेना चाहिये कि इन निर्यूढ रचनाओं के अर्थ प्ररूपक तीर्थंकर है तथा सूत्रों के रचनाकार गणधर है, परन्तु जिन पूर्वधरों ने अंगों एवं
52 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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