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के लिये आर्यरक्षित ने पृथक्त्वानुयोग का वर्गीकरण किया। चार अनुयोगों का वर्गीकरण भी आर्यरक्षित की देन है । "
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सूत्रकृतांग चूर्णि के अनुसार अपृथक्त्वानुयोग के समय प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म, गणित एवं द्रव्यानुयोग तथा सप्त नय की अपेक्षा से की जाती थी परन्तु पृथक्त्वानुयोग के समय चारों अनुयोगों की व्याख्याएँ अलग-अलग की जाने लगी । " यद्यपि विषय की अपेक्षा से यह वर्गीकरण हुआ परन्तु ऐसा पूर्णत: नहीं है, जैसे उत्तराध्ययन में धर्मकथा के साथ दार्शनिक तत्त्व भी है । भगवती तो सभी विषयों का महासागर है। इस प्रकार कुछ आगमों को छोड़कर शेष आगमों में चारों अनुयोगों का सम्मिश्रण है अतः यह वर्गीकरण स्थूल ही रहा ।
दिगम्बर साहित्य में ये चारों अनुयोग कुछ नाम भिन्नता के साथ विद्यमान है- 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग । प्रथमानुयोग में महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है, करणानुयोग में लोकालोक विभक्ति, काल, गणना आदि है, चरणानुयोग में आचरण का निरूपण है और द्रव्यानुयोग में द्रव्य-गुण- पर्याय का विवेचन है। चूँकि दिगम्बर परम्परा आगमों को तो लुप्त मानती है अत: प्रथम में महापुराण आदि, द्वितीय में त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि, चरणानुयोग में मूलाचार एवं द्रव्यानुयोग में प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि का समावेश है । "
चतुर्थ वर्गीकरण
आगमों का अन्तिम एवं चतुर्थ वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल एवं छेद के रूप में उपलब्ध होता है। नन्दीसूत्रकार ने मूल और छेद ये दो विभाग नहीं किये हैं और न उपांग शब्द का प्रयोग किया है। नन्दी में उपांग अर्थ में ही अंगबाह्य शब्द का प्रयोग हुआ है। पण्डित सुखलालजी ने जिनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी से चतुर्थ शताब्दी के मध्य माना है, उन आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंग के साथ उपांग का प्रयोग किया है। 2
सुबोधा समाचारी के रचयिता आचार्य श्रीचन्द्र ने आगम के स्वाध्याय की तपो विधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य अर्थ में उपांग शब्द का उल्लेख किया है।
आचार्य जिनप्रभसूरि ने वायणाविहि की उत्थानिका में जो वाक्य दिया
50 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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