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1. जो गणधरकृत होता है। 2. जो गणधर भगवन्तों द्वारा प्रश्न किये जाने पर तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित _ होता है। 3. जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन
होता है।
इसके विपरीत जो 1. स्थविरकृत हो 2. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हो 3. एवं जो तात्कालिक या सामयिक हो, वह अंगबाह्य होता है। तत्त्वार्थ भाष्य में वक्ता के आधार पर अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगमों का विभाजन है। 55
सवार्थसिद्धि में पूज्यपाद ने वक्ता के तीन भेद भी बताये हैं- 1. सर्वज्ञ, 2. श्रुत-केवली एवं 3. आरातीय आचार्य। आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों द्वारा निर्मित आगम अंगप्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं।
समवायांग और अनुयोगद्वार में तो केवल द्वादशांगी का ही वर्णन है। परन्तु नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के अतिरिक्त अंगबाह्य के आवश्यक, व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में आगम की सम्पूर्ण शाखाओं का भी विवेचन है। तृतीय वर्गीकरण
तृतीय विभाजन आर्यरक्षित ने अनुयोग के आधार पर किया। आर्यरक्षित स्वयं नौ पूर्व एवं दशवें पूर्व के 24 यविक के ज्ञाता थे।
1. चरणकरणानुयोग- कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि। 2. धर्मकथानुयोग - ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि। 3. गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति आदि। 4. द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद आदि ।
यह वर्गीकरण विषय की साम्यता के अनुसार है परन्तु व्याख्या साहित्य की अपेक्षा तो आगमों के दो ही रूप होते हैं- 1. अपृथक्त्वानुयोग एवं 2. पृथक्त्वानुयोग। ये दो रूप भी आर्यरक्षितसूरि के समय में हुए। आर्यरक्षित से पूर्व तो मात्र अपृथक्त्वानुयोग का ही प्रचलन था। इसमें प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्य सभी अपेक्षाओं से होती थी। यह व्याख्या अत्यन्त क्लिष्ट, स्मृति सापेक्ष एवं दुरूह थी। तब आगम व्याख्या को सरल बनाने
जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 49
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