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मान्यता दी गयी।
2. अंग - अंग शब्द जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही भारतीय परम्पराओं में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में इसका प्रयोग मूल आगम गणिपिटक के लिए हुआ है।
वैदिक ग्रन्थों में अंग शब्द वेद के लिये नहीं, अपितु वेद के अध्ययन में सहायक ग्रन्थों के लिये प्रयुक्त हुआ है और ये ग्रन्थ छह है"
(1) शिक्षा- शब्दोच्चारण के विधान का प्ररुपक ग्रन्थ । (2) कल्प - वेदनिरुपित कर्मो का यथावस्थित प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ।
(3) व्याकरण - पद-स्वरुप और पदार्थ निश्चय का वर्णन करनेवाला ग्रन्थ ।
(4) निरुक्त - पदों की व्युत्पत्ति का वर्णन करनेवाला ग्रन्थ ।
(5) छन्द - मन्त्रों का उच्चारण किस स्वर विज्ञान से करना, इसका निरूपण करनेवाला ग्रन्थ ।
___(6) ज्योतिष- यज्ञ-याग आदि कृत्यों के लिए समय-शुद्धि को बतानेवाला ग्रन्थ।
बौद्ध साहित्य में यद्यपि मूल त्रिपिटक को अंग नहीं कहा जाता परन्तु पालि साहित्य में बुद्ध के वचनों को नवांग और द्वादशांग अवश्य कहा गया है।
चौदह पूर्व इस प्रकार है- उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्य, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्य, प्राणायु, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दुसार।
बारह अंग इस प्रकार है- आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाता-धर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक एवं दृष्टिवाद।
आचार आदि आगम श्रुतपुरुष के अंगस्थानीय होने से भी अंग कहलाते हैं।" द्वितीय वर्गीकरण
यह वर्गीकरण देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय का है। उन्होंने अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगम के रूप में आगम साहित्य को विभाजित किया।
अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट का अन्तर समझाते हुए जिनभद्रगणि ने अंगप्रविष्ट के तीन कारण प्रस्तुत किये हैं -
48 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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