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आगमों का वर्गीकरण
प्रथम वर्गीकरण
जैन आगमों का सर्वप्रथम वर्गीकरण समवायांग में उपलब्ध होता है। इस अंग में पूर्व एवं अंग के रूप में समस्त आगम साहित्य को विभाजित किया गया है। पूर्व संख्या की दृष्टि से चौदह थे और अंग बारह ।
1. पूर्व - पूर्व आगम साहित्य की अदभुत रत्नपेटिका है। ऐसा एक भी विषय नहीं है जो इसमें समाहित न हो। इनकी रचना व अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत हैं। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के अनुसार द्वादशांगी से पूर्व ही पूर्यों का निर्माण किया गया था और इसी कारण इन्हें पूर्व साहित्य कहा जाता है। कुछ आगमज्ञ इतिहासकारों के अनुसार पूर्व पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा का साहित्य है। प्रभु महावीर के पूर्ववर्ती होने के कारण इन्हें पूर्व कहा गया है। जो भी हो, इतना तय है कि पूर्व साहित्य का निर्माण द्वादशांगी से पहले हुआ है।
वर्तमान में पूर्व साहित्य द्वादशांगी से पृथक् नहीं माना जाता क्योंकि दृष्टिवाद, जो बारहवाँ अंग आगम है, उसके पाँच विभाग है। इन सभी के नामोल्लेख उपविभाग सहित नन्दीसूत्र में उपलब्ध है। पाँच विभाग इस प्रकार है- 1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. पूर्वगत, 4. अनुयोग तथा 5. चूलिका । तृतीय पूर्वगत विभाग में चौदह पूर्व समाविष्ट हो जाते हैं। इनका ज्ञान ग्यारह अंगों से भी अनन्तगुणा है।
जैन अनुश्रुति के अनुसार महावीर प्रभु ने सर्वप्रथम 'पूर्वगत' अर्थ का निरूपण किया था और उसे ही गौतम आदि गणधरों ने पूर्वश्रूत के रूप में निरूपित किया था। परन्तु यह पूर्वश्रुत अत्यन्त गम्भीर एवं क्लिष्ट होने के कारण आम जिज्ञासु एवं अध्येता इन्हें समझ नहीं पाता था, अत: सामान्य प्रतिभावान के लिये आचारांग
आदि अन्य आगम ग्रन्थों की रचना की गयी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार 'दृष्टिवाद' में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का अवतरण हो जाता है। तथापि ग्यारह अंगों की रचना सामान्य वर्ग के लिए की गयी है।
जो साधक उत्कृष्ट मेधावी होते, वे पूर्वो का अध्ययन करते" एवं जो अल्प बुद्धि वाले होते, वे ग्यारह अंगों का अध्ययन करते । आचारांग के निर्माण से पूर्व समस्त श्रुतराशि चौदह पूर्व या दृष्टिवाद के नाम से जानी जाती थी और बाद में जब ग्यारह अंगों की रचना हुई तो दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में
जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 47
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