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________________ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तदोषक्षयाद् विदुः । क्षणदोषोनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्वैत्वसंभवात्। स्वकर्मण्यमियुक्तो यो रागद्वेषविवर्जितः। पूजितस्तद्विधैनित्य माप्तो ज्ञेयः स तादृशः। अर्थात् आप्तवचन को आगम कहते हैं। दोषों से जो शून्य हो, उसको आप्त कहते हैं। दोष शून्य व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता। जो अपने कर्म में तत्पर हो, राग द्वेष रहित हो, ऐसे ही लोगों से सम्मानित हो, उसे आप्त कहते हैं। न्यायदर्शन चार प्रमाण मानता है - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। न्यायसूत्रकार गौतम ने आप्तोपदिष्ट वचन को शब्द प्रमाण माना है। इस प्रकार आगम शब्द को सभी भारतीय दार्शनिक साहित्यकारों ने व्यापक अर्थ में स्वीकार किया है। भगवती तथा स्थानांग' आदि में आगम शब्द शास्त्र के अर्थ में, आचारांग सूत्र में आगम शब्द का प्रयोग जानने के अर्थ में किया गया है- 'आगमेत्ता आणवेज्जा | व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने आगम-व्यवहार का वर्णन करते हुए उसके दो भेद किये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान एवं परोक्ष में चतुर्दश पूर्व एवं उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है।' इससे स्पष्ट है कि जो ज्ञान है, वह आगम है। सर्वज्ञ द्वारा दिया गया उपदेश ज्ञान होने के कारण आगम ही है। आगमों के प्रकार आगम दो प्रकार के माने गये हैं - लौकिक एवं लोकोत्तर । जो शास्त्र आत्म शुद्धि में सहायक बनते हैं, वे लोकोत्तर एवं जो व्यवहार जगत को चलाने में सहाय्यभूत होते हैं, वे लौकिक शास्त्र कहलाते हैं। लोकोत्तर आगम के एक अपेक्षा से तीन भेद हैं - सुत्तागम, अत्थागम एवं तदुभयागम -32 एक अन्य अपेक्षा से भी आगम के तीन भेद उपलब्ध होते हैं -आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम। आगम सूत्रात्मक एवं अर्थात्मक दो प्रकार के होते हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थ रूप आगम का उपदेश देते हैं अत: अर्थात्मक आगम तीर्थंकरों का आत्मागम माना जाता है, क्योंकि वह उनका स्वयं का है। किसी अन्य से उन्होंने लिया नहीं है। परन्तु वही अर्थागम गणधरों के लिए अनन्तरागम कहलाता है, क्योंकि वे उसे तीर्थंकर परमात्मा से ग्रहण करते है। उस अर्थागम के आधार पर गणधर सूत्र रचना करते 44 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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