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________________ हैं। इसलिये सूत्रात्मक आगम गणधरों के लिए आत्मागम होते हैं। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही मिलता है, अत: उनके लिए वह अनन्तरागम कहलाता है। गणधरों के शिष्य-प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए वही सूत्र और अर्थ दोनों परम्परागम है। 33 उपरोक्त विभिन्न विवेचन द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि आगम तीर्थंकर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट एवं गणधर भगवन्तों द्वारा ग्रथित आप्त वचन है । आगमों के रचयिता यद्यपि आगम प्रणेता तीर्थंकर परमात्मा कहलाते हैं, परन्तु इनका संकलन गणधर भगवंत करते हैं। जिस द्वादशांगी की रचना गणधर भगवन्त करते हैं, उन्हें गणिपिटक कहा जाता है। तीर्थंकर केवल अर्थ रूप उपदेश देते हैं एवं गणधर उसे सूत्रबद्ध करते हैं । " और इसी कारण आगमों में यत्र-तत्र 'तस्सणं अयमट्टे पणते' शब्द का प्रयोग हुआ है । परन्तु यह बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि आगमों की प्रामाणिकता गणधरों के कारण नहीं अपितु तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता एवं उनकी सर्वज्ञता के कारण है। आगमों को एक अपेक्षा से तीर्थंकर प्रणीत भी कहा जाता है | 35 जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येकबुद्ध ( स्थविर ) निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं। " गणधर तो मात्र द्वादशांगी की रचना ही करते हैं, परन्तु अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। 7 आगम निर्माण की प्रक्रिया इस प्रकार है- जिस समय तीर्थंकर परमात्मा गणधरों को दीक्षित करते हैं, उसी समय गणधर परमात्मा से जिज्ञासा करते हैंप्रभो ! तत्त्व क्या है ? परमात्मा एक शब्द में समाधान देते हैं- 'उप्पन्नेइ वा' । गणधर दुबारा प्रश्न करते हैं- तत्त्व क्या है ? प्रभु उसी प्रश्न के जवाब में दूसरा उत्तर प्रस्तुत करते हैं- 'विगमेइ वा' । पुनः गणधर प्रश्न करते हैं- तत्त्व क्या है ? प्रभु कहते हैं- 'धुवेइ वा' । इस त्रिपदी को आधार बनाकर गणधर प्रभु सम्पूर्ण द्वादशांगी की रचना अन्तर्मुहूर्त की अवधि में करते हैं।" इस द्वादशांगी को अंगप्रविष्ट आगम कहा जाता है, अन्य आगम अंगबाह्य कहलाते हैं । यह भी स्पष्टत: समझ लेना चाहिये कि गणधरकृत समस्त रचनायें अंग आगम के अन्तर्गत समाविष्ट नहीं होती । मात्र यह द्वादशांगी ही अंग आगम के जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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