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________________ है। परन्तु जैन साहित्य में 'आगम' शब्द समस्त श्रुतज्ञान का संवाहक न होकर विशेष ग्रन्थों के लिये ही प्रस्तुत होता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी आगम की विशेष परिभाषा देते हुए कहते हैंतप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्यात्माओं के विबोध के लिये ज्ञानकुसुमों की वृष्टि करते हैं और गणधर अपने बुद्धि पट में उन सकल पुष्पों को झेलकर प्रवचन माला गूंथते हैं।'' नियमसार में यह स्पष्ट कहा है कि जो तीर्थंकर से उदभुत है, वह आगम है।'' तीर्थंकर परमात्मा के मुखारविन्द से विनिर्गत, सम्पूर्ण वस्तुओं के विस्तार के समर्थन में दक्ष एवं चतुर वचन को आगम कहते हैं। वीतराग सर्वज्ञ प्रभू द्वारा कथित षड्द्रव्य एवं सप्त तत्वादि का सम्यक श्रद्धान एवं ज्ञान तथा व्रतादि के अनुष्ठान रूप चारित्र इस प्रकार रत्नत्रय का स्वरूप जिसमें प्रतिपादित है, उसे आगम शास्त्र कहते हैं।" हेय और उपादेय रूप से चार वर्गों का समाश्रयण कर तीनों कालों में विद्यमान पदार्थों का जो निरूपण करता है, वह आगम है।० ऐसा नहीं है कि आगम शब्द जैन दर्शन में ही प्रयुक्त हुआ है, अपितु जैनेतर परम्परा में भी आगम शब्द का भरपूर उपयोग हुआ है। तन्त्र साहित्य के लक्ष्मी तन्त्र के उपोद्घात पृष्ठ 1 में वर्णित है कि अनादिकाल से गुरु परम्परा से जो आगत शास्त्र सन्दर्भ है, वह आगम है। स्वच्छन्द तन्त्र में आगम की विशिष्टता इस प्रकार प्रकट हुई है- अदृष्टविग्रहात् शान्ताच्छिवात् परमकारणात् ध्वनिरूपं विनिष्क्रांतं शास्त्रं परमदुर्लभम्। अभूर्ताद गगनाद्यद्वन्निर्धातो जायते महान शान्तातसविन्भयात् तद्रुच्छब्दाख्यं शास्त्रम्।। इसी तरह रूद्रयामल तन्त्र में भी निर्देश मिलता है- 'आगत: शिववक्त्रेभ्यो गतच्छ गिरिजानने । भग्नश्च हृदयाम्भोजे तस्मादागम उच्यते।। योगदर्शन में स्वीकृत तीन प्रमाणों में से आगम भी एक प्रमाण है। प्रत्यक्षानुमाना -गम: प्रमाणानि । विज्ञानभिक्षु ने योग आगम का लक्षण इस प्रकार दिया है- भ्रम, प्रमाद, उत्-कटलिप्सा, अकुशलतादि दोषों से रहित आप्तपुरुष की वाणी को आगम कहते हैं। सांख्य दर्शन भी तीन प्रमाण मानते हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। शब्द ही आगम है। आप्तोपदेश: शब्दः । माठरवृत्तिकार ने आगम की व्याख्या करते हुए भगवान् कपिल के वचन को उद्धृत किया जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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