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________________ निष्पन्न होता है । ' आङ् उपसर्ग का प्रयोग ईषद् अभिव्याप्त आदि अर्थों में होता है । आङ उपसर्ग के साथ 'अत सातत्य गमने' धातु से बाहुलकात् अङ् प्रत्यय लगने पर भी आगम शब्द बनता है। अमरकोषकार ने निम्न अर्थों में आङ् का निर्देश किया है - ‘आङीषदर्थे अभिव्याप्तौ सीमार्थे धातु योगजे” अर्थात् आङ् उपसर्ग ईषद्, अभिव्याप्ति, सीमा और धातुयोग इन अर्थों के लिए प्रयुक्त होता है । आङ् उपसर्ग का अर्थ है- आ समन्तात् अर्थात् पूर्ण । गम् धातु का अर्थ है- गति अथवा प्राप्ति । यह सिद्धान्त है कि 'ये गत्यर्थकाः ते ज्ञानार्थका अपि भवन्ति' जो धातुएँ गत्यर्थक होती हैं, वे ज्ञानार्थक भी होती ही है। इस न्याय से गम् धातु को ज्ञानार्थक मानने पर पूर्ण का ज्ञान या पूर्णता की प्राप्ति रूप ही आगम है, यह अर्थ प्रकट होता है । जो सतत गमन करे, सतत ज्ञान में लीन है, या जो ज्ञान का आधार है, उसे आगम कहते हैं । 'आ' का प्रयोग पाणिनी ने मर्यादा या अभिविधि के रूप में किया है । " आवश्यक नियुक्तिकार ने लिखा है - 'आङ् अभिविधि मर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया वा गमः परिच्छेद: आगम: " अर्थात् जिस ज्ञान को सम्यक् रूप से प्राप्त किया जाय या जो ज्ञान मर्यादा पूर्वक गुरु-शिष्य परम्परा से आ रहा है, उसे आगम कहते हैं। साहित्य में 'गम्' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता पाया जाता है। अमरकोष में इसे गमन का पर्याय माना है। 'यात्राव्रज्यामिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गम' | जहाँ मर्यादा पूर्वक प्रस्थान है, शाश्वत यात्रा के नियमों की जहाँ उद्घोषणा है, उसे आगम कहते हैं । आगम शब्द की जैन दार्शनिकों एवं आचार्यों ने अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की है। जिससे पदार्थों का मर्यादापूर्वक यथार्थबोध हो, वह आगम है।" आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ (पदार्थ) ज्ञान आगम कहलाता है।" जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है ।" जिससे वस्तु तत्त्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो, वह आगम है।" जिससे मर्यादा के साथ पदार्थों का पूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है।" इन परिभाषाओं के अनुसार आगम शब्द सम्पूर्ण श्रुत साहित्य का परिचायक 42 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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