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बोध और आचरण ही तो प्रस्तुत आगम का लक्ष्य है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि सर्वांगीण दृष्टि के विकास के लिए ही यहाँ पर सिद्धान्तों का विमर्श प्रतिपादित हुआ है।
इसी प्रकार प्रस्तुत आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम पुण्डरीक अध्ययन में भी समय अध्ययन के ही मतों का पुन: कुछ अन्य युक्तियों के साथ विवेचन उपलब्ध होता है। यह देखकर इस मान्यता की पुष्टि हो जाती है कि उस समय इन मतों का कितना अधिक प्रचलन और बोलबाला रहा होगा ।
नियुक्तिकार भद्रबाहु, चूर्णिकार जिनदासगणि तथा वृत्तिकार शीलांक ने इन समस्त मिथ्या मान्यताओं का सापेक्ष दृष्टि से निरसन किया है। एकान्त मान्यता न व्यवहारिक है, न प्रासंगिक । जैन दर्शन समस्त मान्यताओं में 'कथंचित्' या 'भी' शब्द का प्रयोग कर अपनी मान्यता को युक्तियुक्त सिद्ध करता है।
जैनदर्शन समाधान का पर्याय है । जहाँ अन्य सारे दर्शन एक ही पक्ष की स्थापना करते है, वहीं जैनदर्शन स्याद्वाद की स्थापना करता है । और इस सापेक्ष कथन से कषाय - शून्य होने का एक सुनहरा अवसर उपलब्ध हो जाता है ।
सूत्रकृतांग में अन्य दर्शनों की मिथ्या मान्यताओं का निरूपण करते हुए उनकी त्रुटियों का तार्किक रूप से विश्लेषण किया है। जैसे- कुछ कहते है, इस सृष्टि में पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । ये पाँच तत्त्व शाश्वत, सर्वलोकव्यापी, आदि - अन्त रहित एवं स्वतन्त्र है। इन पाँचों के संयोग से एक नया तत्व उत्पन्न होता है, जिसे आत्मा कहा जाता है। जिस प्रकार पानी से बुलबुला उठता है और उसी में अन्तर्निहित हो जाता है। इसी प्रकार पंचमहाभूतों के संयोग से आत्मा का जन्म होता है और इनके वियोग से आत्मा उसी में विलीन हो जाता है।
पंचमहाभूतवादी इसे विभिन्न तर्कों द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करते है । जब उनसे पूछा जाता है कि पाँच तत्व तो मृत्यु के पश्चात् भी विद्यमान रहते है, फिर मृत्यु क्यों होती है ? तब वे कहते हैं कि जब पाँचों भूतों में से वायु या तेज इन दोनों का या दोनों में से एक का अभाव होता है तो मृत्यु हो जाती है। इसके अतिरिक्त किसी आत्मा जैसे पदार्थ को शरीर से निकलते नहीं देखा गया है।
जैनदर्शन के इस संबंध में अत्यन्त गम्भीर एवं सटीक समाधान है। उसके अनुसार जब इन भूतों में चेतना का गुण है ही नहीं तो वह प्रकट कहाँ से होगा ? 400 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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