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वीरसेनाचार्य के अनुसार इन 363 मतवादों का विषय दृष्टिवाद (बारहवाँ अंग आगम, जो कालक्रम के साथ विच्छिन्न हो चूका है) में प्रतिपादित है। यद्यपि यह कथन मात्र धवला में ही उपलब्ध होता है, फिर भी दृष्टिवाद नाम से ही इस मान्यता को प्रमाण मिल जाता है कि इसमें समस्त दृष्टियाँ-दर्शनों का विवरण है। चूंकि दृष्टिवाद द्रव्यानुयोग का विषय है, अत: उसमें इस प्रकार की चर्चा होना स्वाभाविक है।
क्रियावाद आदि चारों दार्शनिक अवधारणाएँ आज मात्र साहित्य की चर्चा हो गयी है। व्यवहार में इनका प्रयोग न सम्भव है, न स्वीकार्य। उदाहरण के तौर पर हम समझें कि जैसे विनयवाद है। इसके अनुसार विनय ही श्रेष्ठ और आचरणीय है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए न ज्ञान की आवश्यकता है, न क्रिया की। विनय ही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन और माध्यम है। क्या ज्ञान एवं क्रिया शून्य व्यक्ति के लिए मोक्ष प्राप्ति सम्भव है ? इसी प्रकार से अज्ञानवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद आदि तीनों वाद जीवन में सम्भव नहीं है। परमात्मा महावीर इसलिए शाश्वत् है कि उनकी मान्यताएँ मात्र बौद्धिक ही नहीं, व्यावहारिक भी
। यद्यपि सूत्रकृतांग जैनदर्शन का ग्रन्थ है, फिर भी उसमें जैनेतर मान्यताओं का विवेचन इसलिए प्रासंगिक है कि साधक विभिन्न धारणाओं-मान्यताओं को समझकर यथार्थ को सम्पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ स्वीकार करें।
सूत्रकृतांग में वर्णित ये वाद आज भी हमें बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय, सामञ्चफलसुत्त, सुत्तनिपात, मज्झिम निकाय, संयुत्तनिकाय एवं महाभारत तथा उपनिषदों में यत्र-तत्र बिखरे हुए प्राप्त होते है। यों देखे तो 2500 वर्ष पूर्व की उस दार्शनिक चर्चा ने इस लम्बे अन्तराल के बाद कितने ही परिवर्तन किये है। आजीवक जैसे सम्प्रदाय तो विलुप्त ही हो गये है। बौद्ध-सम्प्रदाय अपनी जन्मस्थली भारत को छोड़कर विदेश में ही फला है। फिर भी आत्मकर्तृत्त्ववादी सांख्य, अनात्मवादी चार्वाक आदि दर्शनों की सत्ता आज भी दृष्टिगत होती है। सुखवाद एवं अज्ञानवाद के बीज आज भी पश्चिम की धरती पर महासुखवाद, अज्ञेयवाद एवं संशयवाद के रूप में फल-फूल रहे है।
इन समरत धारणाओं को जानने और समझने की आवश्यकता तो है ही, क्योंकि जाने बिना साधक के हृदय में इन मिथ्या धारणाओं से मुक्त होने का प्रयास कैसे होगा ? और मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर यथार्थ स्वरूप का
उपसंहार / 399
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