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है । परन्तु मनुष्य ने अपनी विलासिता के कारण सम्पूर्ण प्रकृति के साथ छेड़खानी करके परिग्रह एवं हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है।
आगे इसमें भारतीय दर्शनों की अनेक एकान्त मान्यताओं की व्याख्या करके उनकी विसंगतियाँ बतायी है । यद्यपि सूत्रकृतांग में षड्दर्शन के रूप में एक निश्चित संख्या का निर्धारण उपलब्ध नहीं है और न दार्शनिक मान्यताएँ नामपूर्वक प्रस्तुत है परन्तु धारणाएँ एवं उनका जैन दर्शन के अनुसार खण्डन जरूर उपलब्ध होता है। मूलग्रन्थ में इन दार्शनिक धारणाओं का युक्तिपूर्वक खण्डन करने की अपेक्षा मात्र इतनी ही उपलब्ध होता है कि ये समस्त धारणाएँ एकांगी एवं मिथ्या है। पर क्यों ? इसका कारण तो नियुक्ति या टीका ही बताती है ।
सूत्रकृतांग के प्रथम समय अध्ययन व बारहवें समवसरण अध्ययन में तत्कालीन प्रचलित विभिन्न अन्य दार्शनिक मान्यताओं का निरूपण है ।
'समय' अध्ययन के अन्तर्गत जिन वादों का विवेचन है, वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने उन्हें भिन्न-भिन्न दार्शनिक नाम दिये है। जैसे- जब सूत्रकार यह कहते है कि 'यह लोक पाँच भूतों का समवाय है' तो उसे चार्वाक नाम दिया गया एवं जब अकारकवाद की चर्चा होती है, तो उसे सांख्यमत के रूप में स्वीकार किया गया। इसी प्रकार अन्य अन्य धारणाओं के साथ भी भारतीय दर्शनों की नामपूर्वक संगति स्वीकार की गयी है।
जिस प्रकार 'समय' अध्ययन में भारतीय दार्शनिकों की अवधारणा को विश्लेषित किया है, उसी तरह 'समवसरण' अध्ययन में परमात्मा महावीर कालीन चार अन्य वादों को भी व्याख्यायित किया है । समवसरण अध्ययन में मुख्यतः चार वाद है - क्रियावाद - अक्रियावाद - विनयवाद और अज्ञानवाद । प्रस्तुत अध्ययन
गहन विवेचन से यह पता चलता है कि उस समय कितनी - कितनी धारणाएँ और मत-मतान्तर चलते थे और परमात्मा महावीर ने इन सभी मान्यताओं का किस प्रकार से समन्वय करते हुए उस युग को प्रभावित किया था ।
मूल आगम में मात्र इनके नाम और उनके विपक्ष में विभिन्न युक्तियाँ उपलब्ध होती है। आगे नियुक्ति में इनके 363 भेदों का उल्लेख तो उपलब्ध होता है किन्तु कहीं भी इनके प्रस्तोता व मतवादों के नाम उल्लिखित नहीं है । लगता है- उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने 363 मतवादों की मौलिक अर्थ परम्परा के विच्छिन्न या समाप्त हो जाने के पश्चात् उन्हें गणित की प्रक्रिया के आधार पर समझाने का प्रयास किया है।
398 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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