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उपसंहार
जैनागमों की श्रृंखला में सूत्रकृतांग द्वितीय आगम है। यह आगम तत्वविद्या का प्रतिपादन करने के साथ-साथ दार्शनिक सिद्धान्तों की भी विशिष्ट प्ररूपणा करता है। यद्यपि आचरांग में दर्शन के बीज उपलब्ध होते है, परन्तु जिस विस्तार एवं सर्वागीण दृष्टिकोण से सूत्रकृतांग में दार्शनिक मान्यताएँ उपलब्ध होती है, वह उसमें नहीं है। यह आगम-ग्रन्थ अध्यात्म शास्त्र का तो महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है ही पर इस सम्पूर्ण सूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन करने के पश्चात् इसके सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ अध्यात्म के क्षेत्र में जितना उपयोगी है, उतना ही वर्त्तमान की व्यवस्थाओं में भी प्रासंगिक है ।
इस सूत्र का प्रारम्भ आत्मा का बन्धन और उससे मुक्त होने से हुआ है। आत्मा को केन्द्र में रखकर जहाँ जीवन का प्रारम्भ होता है, वहाँ प्रकृति, समाज और स्वयं, सभी के साथ न्याय हो जाता है ।
बंधन अनेक प्रकार होते है । शरीर के बंधन तात्कालिक होते हैं, अतः वे नजर भी आ जाते है और उनसे मुक्त होने के उपक्रम भी हो जाते है । परन्तु आत्मा के बंधन चूँकि मात्र परिणाम ही देते हैं, अत: न तो उन्हें जानने का प्रयास होता है और न तोडने का। सच तो यह है कि परिणाम हमें बंधन स्वरूप लगता ही नहीं है ।
इसमें बंधन के कारण परिग्रह, हिंसा आदि का उल्लेख है । वर्त्तमान के सन्दर्भ में इन तथ्यों की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है । सारी सृष्टि हिंसा और परिग्रह के प्रति आकृष्ट होने के कारण अशान्त और अस्वस्थ हो गयी है। इस सन्दर्भ में आत्मतुला का सिद्धान्त अपनाना चाहिए । सृष्टि मात्र मानव के लिये ही नहीं है। अपितु इसमें सूक्ष्म और विराट्, सभी जीवों को जीने का अधिकार
उपसंहार / 397
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