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________________ तिलों में से तेल निकलता है पर कोई बालू में से तेल निकालना चाहे तो उसका पुरुषार्थ व्यर्थ होगा। रथ चलता है, चाक पर घट घूमता है, तो वह न अपने आप चलता है, न अपने आप घूमता है। उसे भी चलानेवाला या घुमानेवाला चाहिए। इसी प्रकार शरीर स्वयं सक्रिय नहीं है। उसके अन्दर जो सक्रिय तत्व है, वही आत्मा है। परमतत्वचिन्तक श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में - आत्मानीशंका करे, आत्मा पोते आप। शंकानों करनार ते, अचरज एह अमाप॥-आत्मसिद्धिशास्त्र इस प्रकार अनेक तर्कों द्वारा आत्मा की सिद्धि हो जाती है। सभी इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न कार्य सम्पादित करती है। उन पाँचों का संकलन रूप ज्ञान पाँच भूतों के अतिरिक्त जिसे होता है, वह तत्त्व आत्मा ही है। अगर मात्र इन भूतों का ही अस्तित्व माना जाय तो पुण्य-पाप, सुकृत्-दुष्कृत् आदि समस्त क्रियाएँ व्यर्थ हो जायेगी। पंचमहाभूतवाद से मिलते-जुलते एक और मत का वर्णन यहाँ हुआ है, जिसे तज्जीव-तच्छरीरवाद कहा जाता है। ये दोनों ही वाद चार्वाक मत से मेल खाते है। ज्ञान-पिण्ड स्वरूप सर्वत्र एक ही आत्मा को माननेवाले एकात्मवाद का भी यहाँ वर्णन हुआ है। इसके अनुसार एक ही ब्रह्मा सम्पूर्ण संसार को अज्ञान के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होता है। 'ब्रह्म सत्यं जगन् मिथ्या' का उदघोष करनेवाले अद्वैतवादियों की इस मान्यता को मिथ्या सिद्ध करते हुए शास्त्रकार कहते है कि इस संसार में प्रत्येक चेतन ही नहीं, अपितु प्रत्येक द्रव्य, चाहे वह जड हो या चेतन, स्वतन्त्र है। अगर आत्मा एक ही है तो सभी की क्रियाएँ, सभी की भावनाएँ एवं सभी का आचार एक समान क्यों नहीं होता ? जबकि हम आचार तथा विचार-भिन्नता कदम-कदम पर प्रत्यक्ष अनुभूत करते है। एक हिंसक है, तो दूसरा स्वर्ग के सुखों में झुलता है। तो क्या ये दृष्टिगत हो रही समस्त भिन्नताएँ मात्र भ्रांति है ? नि:सन्देह एक ब्रह्म को सत्य मानकर अन्य सम्पूर्ण सृष्टि को माया या अज्ञान का स्वरूप कहा जाय तो अनेकों विसंगतियाँ प्रकट हो जायेगी। वहाँ बन्धन और मोक्ष किसका और कैसे घटित होगा ? जब सब कुछ मिथ्या और माया है, तो एक का पुण्य और दूसरे का पाप क्या है? यह तर्क या मान्यता तो व्यवहार में भी लागू नहीं हो सकती कि शुद्धात्मा उपसंहार / 401 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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