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शब्द का 'पौद्गलिक जगत्' अर्थ प्रासंगिक लगता है। आत्मा अमूर्त है, इसलिये वह हमें दिखायी नहीं देती। अजीव द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है, इसलिये 'लोक' शब्द से यहाँ उसकी ही अपेक्षा है । '
आचारांग चूर्णिकार ने लोक शब्द का जो अर्थ किया है, वह भी युक्तिसंगत प्रतीत होता है । 'लोकवादी' - जैसे मैं हूँ, इसी तरह अन्य प्राणी भी है। लोक के भीतर ही जीवों का अस्तित्व है, जीव- अजीव लोक समुदय है । इस प्रकार माननेवाला लोकवादी कहा गया है। 2
स्थानांग में जीव - अजीव द्रव्यों को लोक कहा गया है।" समवायांग में भी लोक संबंधी संक्षिप्त विमर्श है। उत्तराध्ययन के अनुसार विश्व के सभी द्रव्यों का आधार लोक है ।' भगवती सूत्र में लोक की व्याख्या पञ्चास्तिकाय के रूप में की गयी है ।
इन्द्रभूति गौतम ने पूछा- भगवन् ! लोक क्या है ?
महावीर - गौतम ! लोक पञ्चास्तिकाय - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय रूप है । '
पञ्चास्तिकाय का स्वरूप
जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है, इसलिये उसने मूल में दो तत्त्वों को माना है- जीव और अजीव । पञ्चास्तिकाय इन दो का विस्तार है । जीव और अजीव को सांख्य आदि द्वैतवादी दर्शन भी मानते है किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त भगवान महावीर का सर्वथा मौलिक सिद्धान्त है। जीव की तुलना सांख्य सम्मत प्रकृति से की जा सकती है। आकाश प्राय: सभी दर्शनों में सम्मत है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दो तत्त्व किसी अन्य दर्शन में प्रतिपादित नहीं है । द्रव्य का प्रयोग वैशेषिक दर्शन में मिलता है, किन्तु अस्तिकाय का प्रयोग किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है । 'अस्तिकाय' यह अस्तित्व का वाचक है । जैसे वेदान्त
ब्रह्मनिरपेक्ष अस्तित्व है, वैसे ही जैन दर्शन में ये पाँच निरेपक्ष अस्तित्व है। जैसे पुद्गल के. परमाणु होते है, वैसे ही शेष चार अस्तिकायों के भी परमाणु होते है। उनके परमाणु पृथक्-पृथक् नहीं होते, सदा अपृथक् रहते हैं, इसलिये प्रदेश कहलाते है ।
भगवती में अस्तिकाय का जो स्वरूप मिलता है, वह दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
390 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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