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(अन्तरहित) है ?
भगवान ने इस प्रश्न का समाधान अपेक्षा चतुष्टयी (द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव) से किया।
- द्रव्यत: सिद्ध एक और सान्त है।
- क्षेत्रत: सिद्ध असंख्य प्रदेशी है। तथा आकाश के असंख्येय प्रदेशों में अवगाहन किये हए है।
- कालत: सिद्ध सादि-अपर्यवसित है और उसका अंत नहीं है।
- भावत: सिद्ध में अनन्त ज्ञानपर्यव, अनन्त दर्शनपर्यव, अनन्त अगुरुलघुपर्यव है और उसका अंत नहीं है।'
प्रस्तुत समाधान में यह स्पष्ट फलित होता है कि एक आत्मा की अपेक्षा सिद्ध जीव की सादि तो है परन्तु इसका कोई चरमबिंदु नहीं है। इसलिये वे सब अपर्यवसित-पर्यवसान रहित (अन्तरहित) होते है। इस अपर्यवसान के सिद्धान्त के द्वारा भगवान महावीर ने अवतारवाद का अस्वीकार किया है।
. सन्दर्भ एवं टिप्पणी गोम्मटसार - 38, 69 स्याद्वादमंजरी - पृ. - 4 सर्वार्थसिद्धि - 1/4/18 नियमसार - 72 तत्वार्थवार्तिक - 10/4/19/644 तत्वार्थवार्तिक - 10/4/19/642 भगवती सूत्र - 2/1/48
6. आगमों में लोकवाद की विचारणा भारतीय चिन्तन में लोकवाद की चर्चा बड़े विस्तार के साथ हुई है। सूत्रकृतांग में लोकवाद की विचारणा में अन्यतीर्थिकों एवं पौराणिकों की लोक संबंधी मान्यता का प्रतिपादन करते हुए उसका खण्डन किया गया है।
आचारांग में प्रतिपादित लोकवाद की अवधारणा सूत्रकृतांग से कुछ अर्थों में भिन्न है। इसमें लोक शब्द का प्रयोग शरीर, जीव, कषाय, जगत, विषय, जनसमूह आदि अनेक अर्थों में हुआ है। प्रथम शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में 'लोक'
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 389
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