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5. भगवती
सूत्र
में अवतारवाद की अवधारणा का खण्डन सूत्रकृतांग में अन्यतीर्थिकों के अवतारवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित है । इसके अनुसार कर्मफल से मुक्त आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी अपने धर्मशासन की अपूजा देखकर सूक्ष्म व आंतरिक राग-द्वेष के वशीभूत होकर पुनः मनुष्य जन्म धारण करता है । यह मान्यता वैदिक परम्परा में अतिप्राचीन काल से प्रचलित है।
जैनदर्शन का यह ध्रुव सिद्धान्त है कि मोक्ष को आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । जन्म-मरण से मुक्त आत्मा के अतिरिक्त किसी भी ईश्वरीय आत्मा का अस्तित्व नहीं है, इसलिये 'संभवामि युगे युगे' जैसा स्वर जैनदर्शन में उच्चरित नहीं है।
गोम्मटसार के अनुसार आजीवक मत में मुक्त जीवों का पुनः अवतार लेना सम्मत है ।' मल्लिषेणसूरि ने भी इस अभिमत का उल्लेख किया है। 'तथा चाहुरजीविकनयानुसारिण: -
"ज्ञानिनो धर्म तीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् ।
गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थ निकारतः ॥”2 जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष का अर्थ है - कर्मरज से सर्वथा मुक्त होना ।
" जब आत्मा कर्ममल रूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है, तब उसकी जो अचिन्त्य, स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते है । '
कुंदकुंद के अनुसार "आठों कर्मों को क्षय करने वाले, अनंतज्ञान-दर्शनवीर्य, सूक्ष्मत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से युक्त सिद्धात्मा (मुक्तात्मा) परमलोक के अग्रभाग में स्थित है । ' 'सिद्ध बनने के पश्चात् संसार में आकर जन्म-मरण करने की बाधा भी नहीं है। क्योंकि मूर्त अवस्था में ही प्रीति, परिताप आदि बाधाओं की संभावना थी।”
कर्म से मुक्त होने के पश्चात् उनमें पुनः कर्मबंध या संसार की संभावना नहीं होती क्योंकि बंधनरूप कारण का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। कारण समाप्त होने पर भी कार्य हो तो जीव का मोक्ष होगा ही नहीं ।"
भगवती में भी इसी प्रकार की चर्चा उपलब्ध होती है। आर्य रोह ने भगवान से प्रश्न किया- भगवन् ! सिद्ध (मुक्तात्मा) सान्त ( अन्त सहित ) है या अनन्त 388 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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