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अस्तिकाय
अस्ति शब्द के दो अर्थ है - 1. त्रैकालिक अस्तित्व एवं 2. प्रदेश । काय अर्थात् राशि।
टीकाकार गुणरत्नसूरि ने अस्तिकाय का अर्थ बहुप्रदेशी किया है। जिनके टुकड़े न हो सके, ऐसे अविभागी प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते है। पञ्चास्तिकाय का लक्षण
अस्तिकाय के निरूपण में भगवान महावीर की मुख्य चार दृष्टियाँ रही हैद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव। इन दृष्टियों के आधार पर कहा जा सकता है कि सापेक्षता के बिना किसी भी अस्तित्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।
द्रव्य की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक द्रव्य है। जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य है। एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता। सभी जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है। पुद्गलास्तिकाय का भी यही नियम है।
क्षेत्र की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय लोक प्रमाण है जबकि आकाशास्तिकाय लोक तथा अलोक प्रमाण है। केवली समुद्घात के समय एक जीव के प्रदेश पूरे लोक में व्याप्त हो जाते है।' अत: एक जीव को भी क्षेत्र की अपेक्षा से लोक प्रमाण कहा जा सकता है। यह कदाचित्क घटना है।
___ काल की अपेक्षा से पाँचों अस्तिकाय अक्षय, अव्यय, नित्य, नियत, ध्रुव तथा शाश्वत है।
भाव का अर्थ है - पर्याय । अस्तिकाय चतुष्टय में भाव का निषेधात्मक रूप से निरूपण किया गया है। केवल पुद्गलास्तिकाय में उसका विधायक निरूपण है। भाव की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय ये चारों अवर्ण, अगंध, अरस तथा अस्पर्श वाले है। मात्र पुद्गलास्तिकाय वर्णवान्, गंधवान, रसवान् तथा स्पर्शवान है। जीवास्तिकाय चेतन है, शेष चार अचेतन है। पुद्गलास्तिकाय मूर्त है, शेष चार अमूर्त है। अमूर्त का लक्षण है - वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का अभाव । मूर्त का लक्षण है - जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त हो। यह मूर्त तथा अमूर्त्त का विभाग भी जैनदर्शन में प्राचीनकाल से मान्य रहा है।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 391
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