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2. कर्म - प्रवृत्त होना। 3. बल - शारीरिक सामर्थ्य।
4. वीर्य - मन, वाणी आदि का संचालन करने वाली शारीरिक ऊर्जा या जीव की शक्ति, आन्तरिक क्षमता।
5. पुरुषकार - मैं ऐसा कर सकता हूँ, इस प्रकार की अवधारणा, पौरुषभिमान। 6. पराक्रम - कार्य निष्पत्ति में सक्षम प्रयत्न ।
भगवान के साथ हुए इस छोटे से संवाद से सद्दालपुत्र को यथार्थ बोध प्राप्त हो गया। भगवान के हृदयग्राही तर्कपूर्ण वचनों से संबोध को प्राप्त कर वह उनका अनुयायी बन गया। गोशालक को ज्योंहि मत परिवर्तन की खबर मिली। उसने वहाँ आकर विविध उपायों से उसके हृदय को मोड़ने का प्रयास किया परन्तु सद्दालपुत्र की आस्था अचल रही। मायावी देव ने भी उसकी परीक्षा ली। जीवन के अन्तिम क्षणों में उसने समाधिपूर्वक मरण का वरण किया और स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार कुण्डकौलिक और सद्दालपुत्र प्रकरण के माध्यम से उपासकदशांग में नियतिवाद का प्रतिपादन तथा निरसन करते हुये पुरुषार्थवाद तथा कर्मवाद की महत्ता को प्रस्तुत किया गया है।
इन दोनों धारणाओं के आधार पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भगवान महावीर पुरुषार्थवादी थे अथवा नियतिवादी । पुरुषार्थवाद भी एकान्तवाद है और नियतिवाद भी एकान्त आग्रह है। उन्हें पुरुषार्थवाद तथा नियतिवाद का समन्वय मान्य था। इसलिये उन्होंने सापेक्षता की व्याख्या करते हुए दो प्रकार के कर्म बताये - प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म।
अनुभाग कर्म अर्थात् कर्म पुद्गलों का रस, जो जीव द्वारा संवेद्यमान होता है- प्रदेश कर्म का वेदन अवश्यम्भावी है, परन्तु तीव्र पुरुषार्थ के द्वारा निष्क्रिय बना देने पर अनुभाग का वेदन नहीं भी होता है। अर्थात् अनुभाग में परिवर्तन पुरुषार्थ के बिना सम्भव नहीं है।
भगवती में 'यथा निकरण' के द्वारा भी नियतिवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है।' वृत्तिकार ने बतलाया है कि कर्म अपने देश, काल आदि नियत कारणों का अतिक्रमण नहीं करता, इसलिये अर्हत द्वारा जिस रूप में दृष्ट है, उसी रूप में उसका विपरिणमन होता है।10
जिस रूप में कर्म का बन्ध हुआ, उसी रूप में कर्म का विपाक होगा, सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 381
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