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________________ वह पौधा दिव्य जलवृष्टि से निष्पन्न हुआ है। सात तिल पुष्प के जीव भी मरकर उसी तिल के पौधे की तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार वनस्पतिकायिक जीव मरकर पुन: उसी वनस्पति के शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। तब गोशालक ने उस तिलफली को तोड़कर हथेली में मसलकर सात तिल बाहर निकाले। उस समय भगवान का वचन सत्य सिद्ध हो जाने पर दुराग्रह वश सब जीवों के परिवर्त-परिहार सिद्धान्त को स्थापित किया। भगवान ने वनस्पतिकायिक जीवों के परिवृत्य अर्थात् मरकर पुन: उसी में बार-बार उत्पन्न होने का कथन किया था किन्तु गोशालक मिथ्या आग्रह वश सभी जीवों के लिये एकान्त रूप से परिवृत्य-परिहारवाद रूप मिथ्या मान्यता को लेकर भगवान से पृथक विचरने लगा। तेजोलेश्या को प्राप्त कर अहंकारवश जिन और अर्हत् न होते हुये भी अपने आपको जिन कहने लगा। अपने पास आने वाले के जीवन विषयक निमित्त कथन और भूत-भविष्य के कथन से मूढ समाज उसके प्रति आकर्षित होने लगा। __ मंखली पुत्र गोशालक जब श्रावस्ती में अपनी अनन्य उपासिका हलाहला कुम्हारीन के यहाँ ठहरा हुआ था, उस समय छ: दिशाचर उसके पास शिष्य भाव से दीक्षित हुए। यथा - शोण, कनन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवेश्यायन और गोमायु पुत्र अर्जुन। इन दिशाचरों के विषय में वृत्तिकार कहते है कि ये भगवान महावीर के ही पथभ्रष्ट शिष्य थे। चूर्णिकार का कथन है कि ये छ: दिशाचर पासत्थ अर्थात् पार्श्वनाथ की परम्परा के (पापित्य) थे। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को इस मंख परम्परा एवं मंखलि पुत्र गोशालक का विशेष परिचय न था इसलिये वे भगवान से मंखलिपुत्र का अथ से इति तक वृत्तान्त जानने की प्रार्थना करते है। उस समय तेजोलेश्या लब्धि का धारक नियतिवादी गोशालक हलाहला कुम्भकारी के वहाँ जमकर उत्सूत्र प्ररूपणा करता था। अपने वास्तविक स्वरूप को छुपाकर भगवान के समक्ष धृष्ट होकर अपने अहंकार का प्रदर्शन करता था। भगवान ने उसे चोर के दृष्टान्त से समझाया भी था, परन्तु उसका प्रभाव उल्टा ही हुआ। एक दिन रोष और आक्रोश से भरकर भगवान के समक्ष मरने मारने की धमकी देने पहुंच गया। भगवान के दो शिष्य सानुभूति और सुनक्षत्र ने जब गोशालक के समक्ष प्रतिवाद किया तो गोशालक ने तेजोलेश्या के प्रहार द्वारा एक को जलाकर 376 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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