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________________ भस्मीभूत कर दिया, दूसरे अणगार तुरन्त भस्म न होकर घायल हो गये। वे क्षमापना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त हुए। ___इसके पश्चात् भी भगवान ने गोशालक को बहुत समझाया कि जिसने तुम्हें प्रव्रजित कर बहुश्रुत बनाया, उसके साथ तुम्हारा यह व्यवहार योग्य नहीं है। ऐसा सुनकर क्रुद्ध गोशालक ने भगवान पर तेजोलेश्या फेंकी परन्तु भगवान को मारने के लिये छोड़ी गयी तेजोलेश्या उन्हें क्षति न पहुँचाकर आकाश में उछलकर, नीचे लौटकर पुन: गोशालक के शरीर में ही प्रविष्ट हो गयी और बार-बार उसे जलाने लगी। अपने ही तेज से पराभूत होकर उसने भगवान को छ: माह के अन्त में पित्तज्वर से ग्रस्त होकर दाह पीड़ावश मरने की धमकी दी तो भगवान ने जनता में मिथ्या प्रचार की सम्भावना को लेकर प्रतिवाद किया कि - हे गोशालक! तेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर मैं छ: मास के अन्त में काल नहीं करूँगा, बल्कि अगले सोलह वर्ष पर्यन्त जिन अवस्था में गन्धहस्ती की भाँति पृथ्वी पर विचरण करूँगा। परन्तु हे गोशालक ! तू स्वयं तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर सात रात्रियों के अन्त में पित्तज्वर से पीड़ित होकर छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जायेगा। भगवान के शिष्यों ने गोशालक को तेजोहीन समझकर धर्मचर्चा में उसे पराजित किया। परिणामत: अनेक आजीवक स्थविर गोशालक का साथ छोड़कर भगवान की शरण में चले आये। गोशालक ने तेजोलेश्या द्वारा भगवान को मारना चाहा था परन्तु वह स्वयं के लिए ही प्राण घातक बन गयी। वह उन्मत्त होकर प्रलाप, मद्यपान, नाचगान करने लगा। अपने दोषों को ढकने के लिये वह चरमपान, चरमगान आदि आठ चरमों की मन गढन्त कल्पना करने लगा। अचंपूल नामक आजीविकोपासक ने जब गोशालक की उन्मत्त चेष्टाएँ देखी तो विमुख होकर जाने लगा परन्तु उसे स्थविरों ने उटपटांग समझाकर पुन: गोशालक मत में स्थिर किया। गोशालक ने अपना अन्तिम समय निकट जानकर अपने शिष्य परिवार को शवयात्रा धूमधाम से निकालने की हिदायतें दी परन्त सातवीं रात्रि के व्यतीत होते-होते गोशालक की मिथ्यादृष्टि.छिन्न-भिन्न हो गई। उसकी आत्मा में समकित का दीप जल उठा और उसके उजाले में अपने कुकृत्यों को निहारकर आत्मनिन्दा पूर्वक सभी के समक्ष उत्सूत्र प्ररूपणा का रहस्य उद्घाटित किया। उसने बताया कि वह 'जिन' नहीं है फिर भी अपने आपको 'जिन' कहता था। वह वही मंखली सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 377 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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