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________________ में स्नेहगर्भित अनुकम्पा उत्पन्न हुई। छद्मस्थ होने के कारण भविष्यत्कालीन दोषों की ओर उनका उपयोग नहीं लगा अथवा भवितव्यता ही ऐसी थी। अत: उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। एक बार वे घूमते हुए कुर्मग्राम नगर में आये। जहाँ वैश्यायन नामक बाल तपस्वी निरन्तर छठ-छठ तप करता हुआ दोनों भुजाएँ ऊँची उठाकर, सूर्य के सम्मुख आतापना ले रहा था। सूर्य की गर्मी से उसके सिर से जुए नीचे गिर रही थी, जिसे प्राण, भूत, जीव और सत्वों की दया के लिये वह बार-बार उठाकर पुन: वहीं रख रहा था। गोशालक उसे देखकर छेड़खानी करने लगा कि आप तत्त्वज्ञ है या जुओं के शय्यातर (स्थान-दाता) है ? दो-तीन बार ऐसा कहने पर कुद्ध हुए तपस्वी ने गोशालक को लक्ष्य में रखकर तेजोलेश्या छोड़ी तो भगवान ने उसका प्रतिसंहरण करने के लिये शीतलेश्या का प्रयोग किया। यहाँ उसने भ. महावीर से तेजोलेश्या लब्धि प्राप्त करने का उपाय पूछा। भगवान से एतद्विषयक विधि जानकर उसने वह लब्धि प्राप्त की। तेजोलेश्या का प्रशिक्षण लेने के बाद उसके सिद्ध हो जाने पर गोशालक का अहंकार दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। इस बीच एक घटना और घटित हुई, जिसने गोशालक के जीवन को पतन के गर्त में धकेल दिया। गोशालक ने एक तिल के पौधे को लेकर उसकी निष्पत्ति के विषय में पूछा- भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ? इन सात तिल पुष्पों के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ? भगवान ने प्रत्युत्तर दिया - गोशालक ! यह तिलस्तवक निष्पन्न होगा। ये सात तिल के पुष्प मरकर इसी तिल के पौधे की तिलफली में सात तिलफलों के रूप में उत्पन्न होंगे। गोशालक ने भगवान के कथन पर अश्रद्धा कर भगवद् वचन को मिथ्या सिद्ध करने की कुचेष्टा से उस तिल के पौधे को समूल उखाड़ कर फेंक दिया। परन्तु संयोगवश वृष्टि हुई जिससे तिल का पौधा वहीं जम कर वह पुन: उगा और बद्धमूल होकर वही प्रतिष्ठित हो गया। वे सात तिल पुष्पों के जीव भी मर कर पुन: उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए। कुर्मग्राम से पुन: सिद्धार्थ ग्राम जाते समय गोशालक ने भगवान को मिथ्यावादी सिद्ध करने के लिये पौधे को उखाड़ने की बात कही, तब भगवान ने कहा - हे गोशालक ! तूने मेरी प्ररूपणा को झूठा साबित करने की चेष्टा की थी, परन्तु सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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