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________________ को उपदेश देकर अपनी आजीविका चलाने वाले भिक्षुक जैन परम्परा में मंख कहे गये है । भगवती में यों तो अनेक स्थानों पर आजीवक मत संस्थापक अन्ययूथिक या नियतिवादी के रूप में गोशालक का उल्लेख है, परन्तु 15वें शतक में जो विस्तृत वर्णन है वह इस प्रकार है - गोशालक का जन्म सरवण नामक ग्राम में रहने वाले वेद विशारद गो बहुल ब्राह्मण की गोशाला में हुआ था । और इसीलिये उसके पिता मंखलिमंख एवं माता भद्रा ने अपने पुत्र का नाम गोशालक रखा । गोशालक जब युवा हुआ एवं ज्ञानविज्ञान में परिपक्व हुआ तब उसने अपने पिता का धन्धा मंखपना स्वीकार किया । गोशालक स्वयं गृहस्थाश्रम में था या नहीं, इसके विषय में प्रस्तुत प्रकरण में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। चूँकि वह नग्न रहता था, इससे लगता है कि वह गृहस्थाश्रम में न रहा हो। जब महावीर दीक्षित होने के बाद विचरण करते-करते राजगृह के बाहर बुनकर बास में ठहरे तब उनके पास ही मंखलिपुत्र गोशालक भी ठहरा हुआ था। इससे मालूम होता है कि मंख भिक्षुओं की परम्परा महावीर के पूर्व से विद्यमान थी । भ. महावीर केवलज्ञान होने के पश्चात् विचरण करते हुये चौदहवें वर्ष में श्रावस्ती नगरी में पधारे। गोशालक भी घूमता- घूमता पुन: इसी नगरी में आ पहुँचा। इस प्रकार गोशालक का भगवान महावीर के साथ छप्पन वर्ष की आयु पुन: मिलना हुआ । में इस शतक में यह बताया गया है कि जब भगवान महावीर के प्रथम मासक्षमण का पारणा विजय गाथापति द्वारा हुआ तब उस पारणे के प्रभाव से पाँच दिव्य प्रकट होने के चमत्कारिक प्रभाव से आकर्षित होकर गोशालक ने परमात्मा के पास जाकर उनसे अपने आपको शिष्य के रूप में स्वीकारने की प्रार्थना की, परंतु वे मौन रहे। बाद में जब घूमते-घूमते महावीर कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे तब वह फिर उन्हें ढूँढ़ता - ढूँढ़ता वहाँ जा पहुँचा और उनसे पुनः अपना शिष्य बनाने की प्रार्थना की। करुणा के सागर महावीर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । बाद में वह छः वर्ष तक भगवान के साथ-साथ घूमता रहा । भावी अनेक अनर्थों के कारणभूत अयोग्य गोशालक को भगवान ने अपना शिष्य क्यों बनाया? इस प्रश्न का समाधान वृत्तिकार इस प्रकार देते है कि भगवान उस समय तक पूर्ण वीतरागी नहीं थे। अतएव परिचय के कारण उनके हृदय 374 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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