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के पुस्तकालयों का पूरा-पूरा उपयोग किया है। वहाँ के व्यवस्थापकों के सहयोगी भावों का मैं हार्दिक अनुमोदन करती हूँ।
प्रस्तुत शोध की सम्पूर्ति में ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष वा परोक्ष, जिनजिनका सहयोग मुझे मिला है, उनका ससम्मान स्मरण करते हुए मुझे
आत्मिक आह्लाद की अनुभूति हो रही है। भविष्य में भी उन सबका सहयोग मुझे मिलता रहेगा, ऐसी आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है।
अन्त में परमकल्याणी, विश्वतापसंहारिणी आगम वाणी को अगणित श्रद्धा भावों से नमन करती हुई समर्पण के इन शब्दों में मेरा भी स्वर मिलाने के निवेदन के साथ त्वदीयमेव गोविन्द, तुभ्यमेव समर्पये......
विनम्र साध्वी नीलांजना
गुरुपूर्णिमा, ई.स. 2004 श्री जिनकुशलसूरि दादावाड़ी, बेंगलोर (कर्नाटक)
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