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________________ दिखायी नहीं दिया। अत: शरीर से पृथक् जीव की सत्ता असिद्ध है। केशी श्रमण -हे राजन् ! तू बड़ा मूढ़ मालूम होता है। मैं तुझे एक उदाहरण देकर समझाता हूँ। एक बार कुछ वनजीवी साथ में अग्नि लेकर एक बड़े जंगल में पहुंचे। उन्होंने अपने एक साथी से कहा -हम जंगल में लकड़ी लेने जाते है। तू इस अरणी (लकड़ी) से आग लगाकर हमारे लिये भोजन बनाकर तैयार रखना। यदि अग्नि बुझ जाये तो लकड़ियों को घिसकर अग्नि जला देना। संयोगवश उसके साथियों के चले जाने पर थोड़ी ही देर बाद आग बुझ गयी। अपने साथियों के आदेशानुसार वह लकड़ियों को चारों और से उलट-पुलट कर देखने लगा। लेकिन आग कही नजर नहीं आयी। उसने अपनी कुल्हाड़ी से लकड़ियों को चीरा, उसके छोटे-छोटे ट्रकड़े किये, फिर भी आग दिखायी नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा कि देखो, मैं अभी तक भी भोजन तैयार नहीं कर सका। इतने में उसके साथी जंगल से लौट आये। उसने उन लोगों से सारी बातें कही। उसमें से एक चतुर साथी ने कुल्हाड़ी लेकर शर बनाया और शर से अरणि काष्ट को रगड़कर आग की चिंगारी प्रकट की। फिर उसे धोंक कर सुलगाया और उन सभी के लिए भोजन बनाया। हे प्रदेशी ! जैसे लकड़ी को चीर कर आग पाने की इच्छा रखने वाला मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीरकर जीव देखने की इच्छा रखने वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। तुम्हारी प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है, जैसे अरणि को चीर-फाड़ करके अग्नि को देखने की क्रिया। अत: हे राजन् ! तुम श्रद्धा रखो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। प्रदेशी - हे श्रमण ! जैसे कोई व्यक्ति अपनी हथेली पर आँवला स्पष्ट रूप से दिखाता है, वैसे ही क्या आप जीव दिखा सकते है ? केशी श्रमण - हे पएसी ! इस समय हवा चलने से तृण, घास, वृक्षादि वनस्पतियाँ हिल-डुल रही है, काँप रही है, स्पन्दन कर रही है, क्या तुम सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 371 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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