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। इन्हें इसी प्रकार देख रहे हो? प्रदेशी - हाँ भगवन् ! मैं ऐसा ही देख रहा हूँ। केशी - क्या, इन्हें कोई देव, असुर आदि हिला रहा है ? . प्रदेशी - नहीं भगवन् ! न इन्हें कोई व्यक्ति हिला रहा है, न कोई अन्य शक्ति।
ये वायु के बहने से हिल-ड्रल रही है। केशी - हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम-राग-मोह युक्त शरीरधारी वायु
को देख सकते हो ? प्रदेशी - भदन्त ! मैं उसे नहीं देख सकता। केशी - राजन् ! जब तुम इस रूपधारी (मूर्त), सशरीर वायु के रूप को भी
नहीं देख सकते हो, तो इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त, शरीर रहित जीव को हाथ में रखे आँवले की तरह कैसे देख सकते हो?
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु, शब्द, गन्ध और वायु इन आठ पदार्थों को उनकी समस्त पर्यायों सहित अर्हन्त, जिन, केवली ही जानते है, देखते है, छद्मस्थ नहीं। अत: हे प्रदेशी ! तुम श्रद्धा
करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न है। प्रदेशी - भदन्त ! क्या हाथी और चींटी में एक समान जीव होता है ? केशी - हाँ राजन् ! एक समान होता है। जैसे कोई व्यक्ति कमरे में दीया जलाये
तो वह कमरा सम्पूर्ण प्रकाशित हो जाता है। यदि उसे बर्तन से ढक दिया जाये तो वह बर्तन को ही प्रकाशित करता है। परंतु दीपक दोनों स्थानों पर वही है। स्थान विशेष की दृष्टि से उसका प्रकाश संकुचित और विस्तृत होता है। यही बात हाथी और चींटी के सम्बन्ध में समझनी चाहिये। संकोच
और विस्तार में उसकी प्रदेश संख्या न्यूनाधिक नहीं होती
बल्कि समान ही रहती है। केशी श्रमण के अकाट्य तर्कों को सुनकर राजा प्रदेशी की तज्जीवतच्छरीरवादी मान्यता 'जो जीव है, वहीं शरीर है' छिन्न-भिन्न हो गयी। अन्त में उसने प्रतिबोध को प्राप्त कर श्रावक व्रत ग्रहण किये। इस प्रकार केशी श्रमण तथा प्रदेशी के संवाद के माध्यम से तज्जीव-तच्छरीरवाद का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत आगम में प्राप्त होता है। 2
372 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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